ज्योतिष शास्त्र की अंगभूत विद्याएं

ज्योतिष शास्त्र की अंगभूत विद्याएं 

पुराने जमाने से ही मानव स्वंय के भूत, भविष्य और वर्तमान के बारे में जानने के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहा है। उसने अलग-अलग विद्याओं से भविष्य के बारे में जानने की खोज की और अनेक ग्रंथों की सहायता या मदद भी ली तिष शास्त्र कीी अंग भूत विद्यालय हैं जो निम्नानुसार हैं


1.अंकशास्त्र:- अंको के बिना ज्योतिष शास्त्र कुछ काम का नहीं होता है।मूलांक का ज्ञान करना भी अंकशास्त्र विद्या में आता हैै, अपनी जन्म, तिथि महीना और सन्  को जोड़कर जो संख्या प्राप्त होती हैं उसका एक अंक बनाकर जो अंक मिलता हैै वह हमारा मूलांक होता है।इस प्रकार भविष्य का ज्ञान मूलांक के द्वारा ज्ञान कर सकते हैं। शुभ मूलांक में  जन्मे व्यक्ति का भविष्य उज्जवल रहेगा। हजारों की संख्याएं जोड़कर 1 से 9 अंक तक कोई सा भी मूलांक बनाया जा सकता है।  ग्रहों के मूलांक इस प्रकार हैं- 


सूर्य(1),चंद्रमा(2),गुरु(3),केतु(4),बुध(5),शुक्र(6),राहु(7),शनि(8),व मंगल(9)।


2.शुभ-शकुन :- अच्छा शकुन होने पर काम करने पर वह काम शुभ एवं सफल होता है। अशुभ शकुन् होने पर कार्य में विघ्न आकर कार्य में सफलता नहीं मिलती हैं, जैसे काम करते समय छींक का आना, बाई आंख का फड़फड़ाना, कुत्ते या बिल्ली का रोना, बिल्ली के द्वारा रास्ता काटना, घर से निकलते समय खाली घड़ा दिखाई देना या बुरे सपने दिखाई देना आदि अपशकुन पुराने जमाने के साथ जुड़े हुई हैं। इसी प्रकार अच्छे शकुनों में घड़ा का भरा दिखाई देना,कार्य को शुरू करते समय नारियल का फोड़ना, घर से निकलते समय नीलकंठ पक्षी का दिखाई देना, मुर्गे की बांग सुनना, पुरुषों का दायां स्वर का चलना आदि भी मान्यताएं हमारी पुरानी संस्कृति से जुड़ी हुई हैं।


3.स्वर के द्वारा विचार :- यह विद्या पुरानी समय से चली आ रही है और सामरिक फलों के अनुसार काम करती हैं। नाक में तीन नाड़ियां-इंडा, पिंगला और सुषुम्ना हैं। इंडा बाई नाक का स्वर,पिंगला दाई नाक का स्वर और सुषुम्ना दोनों के बीच में। काम को करते समय बाई नाक का इंडा स्वर अच्छा व शुभ माना जाता हैं। काम को करते समय दाई नाक का पिंगला स्वर खराब व अशुभ माना जाता हैं। काम को करते समय दोनों स्वर चलने पर सुषुम्ना खराब व बुरा फल देते है। 


4.अंग और उपांग :- औरत व आदमी के शरीर के अंग और उपांगों में विशेष रूप से चेहरा, माथा,आंख,नाक,कान,गर्दन, कंधे,भुजाएँ, वक्ष,कमर,पैर आदि के आधार पर व्यक्ति के चारित्रिक और स्वभाविक लक्षणों का अध्ययन किया जाता हैं।लोम्रबोसो अपराध के अध्ययन में करते हैं धंसा माथा,उभरी गाल की हड्डियां और चौड़े जबड़े वाला व्यक्ति हिंसा करने वाला हो सकता है।ज्योतिष में माथे के आकार और रेखाओं के अध्ययन से भविष्य बताने का प्रचलन है।


5.वास्तुशास्त्र :- वास्तु से भी शुभ-अशुभ का फलकथन करते है। खराब भूमि पर घर को बनने पर या दूसरे काम भूमिपति के भविष्य सम्बन्धी सभी कामों पर खराब फल देते है। वास्तु शास्त्र के आधार पर विभिन्न कक्षों को बनाकर मकान में रहने पर व्यक्ति को शारिरिक एवं मानसिक रूप सुखी रहते हैं।


6.समय और देश :- आदमी और औरतों पर देश और काल(समय) का अच्छा व बुरा प्रभाव पड़ता हैं। सभी स्थान और समय व्यक्ति के लिए ठीक नहीं रहता है। ठीक देशकाल जहां व्यक्ति के जीवन से सम्बन्धी सभी आवश्यकताओं को पूरा करता हैं, वहीं खराब देश काल मे रहने से व्यक्ति को रोजगार के साधन, जलवायु एवं मिट्टी के खराब रहने से व्यक्ति दुःख में रहता है। बाढ़, अकाल,भूकम्प ग्रस्त तथा बेकार भूमि अच्छी नहीं होती हैं 


7.चिन्ह ज्ञान :- आदमी एवं औरतों के शरीर पर कई-कई प्रकार के निशान होते हैं, इन निशानों को देखकर भविष्य का फलादेश करते हैं जैसे मस्तक रेखाएं, शरीर पर काले, लाल, भूरे, सफेद तिल, मस्से, लहसुन के निशान, हथेली पर पर्वतों की स्थिति, शंख, चक्र, यव, क्रॉस, त्रिशूल, वर्ग एवं बिंदु भविष्य को बताने में सहायक होते हैं।


8.हस्तरेखा :- आदमी और औरतों के दोनों हाथों पर बनी रेखाओं और चिन्हों के द्वारा भूत, भविष्य और वर्तमान का फलकथन करने में सबसे अधिक प्रचलित शास्त्र हैं। पाश्चात्य हस्तरेखा विशेषज्ञ कीरो को आज भी लोग मानते और मान्यता देते हैं। कोई भी आदमी या औरतों की हाथों की रेखाएं एक दूसरे से मेल अर्थात समान नहीं होती है इसलिए हस्ताक्षर के स्थान पर अंगूठा लगाकर व्यक्ति को पहचानने का चलन है।


9.तन्त्र-मन्त्र-यन्त्र :- ज्योतिष में तन्त्र-मन्त्र और यंत्रो का बहुत ही महत्व है। आने वाली मुसीबतों को दूर करने में इनका सहारा लिया जाता है।तन्त्र-मन्त्र और यन्त्र द्वारा भाग्य को बदला जा सकता है। 


तन्त्र :- जिस क्रिया करने से देवी-देवता खुश होते है, उसे तन्त्र कहते हैं।


मन्त्र :- जिस क्रिया में देवी-देवता को खुश करने के लिये जाप किये जाते है, उसे मन्त्र कहते हैं।


यन्त्र :- ताबीज होते है, जिन्हें सिद्ध करके पहनने से मुसीबतों का निवारण होता है, उसे यन्त्र कहते हैं।


प्रत्येक कार्य की मुसीबतों को दूर करने काम को पूरा करने के लिए हजारों मंत्र, तंत्र और यंत्र हैं।


10.आयुर्वेद :- मुहूर्त देखकर बीमार को देखना, औषधि को बनाना और बीमार को समय पर औषिधि देने का शास्त्र आयुर्वेद हैं। शुभ मुहूर्त में औषिधि को बनाना और शुभ मुहूर्त में औषधि को देने से बीमार व्यक्ति जल्दी ठीक होता है।


टैरो कार्ड और लाल किताब द्वारा व्यक्तियों के भविष्य को जानने का भी अब प्रचलन बढ़ रहा है।


इसके अलावा व्यक्ति के हस्ताक्षर और लेख द्वारा  उसके व्यवहार और चरित्र को जानने की विद्या का विकास हुआ है। 

ज्योतिष शास्त्र का परिचय

ज्योतिष शास्त्र का परिचय


'ज्योतिष 'शब्द 'ज्योति' से बना है। 'ज्योति का शाब्दिक अर्थ'-:प्रकाश,उजाला,रोशनी,आभा,द्युति आदि हैं। 


ज्योतिष शब्द का सन्धि-विच्छेद ज्योत+ईश होता हैं।जिसका अर्थ ईश्वर की रोशनी हैं अर्थात ईश्वर के द्वारा अंधेरे से उजाला की ओर ले जाने का मार्गदर्शन होता हैं।


आकाश मंडल के ग्रह एवं नक्षत्र ज्योति प्रदान करते हैं मेष,वृषभ,मिथुन, सिंह, तुला, मकर, मीन आदि आकार  वाले  तारक समूह को ज्योतिष में राशियों की संज्ञा दी गई है, यह हमें ज्योति प्रदान करते हैं। धूम्रकेतु ,उल्काएं आदि भी ज्योति प्रदान करते हैं। जन्म के समय 'ज्योति रश्मियां' ही व्यक्ति के स्वभाव का निर्माण करती हैं।


'ज्योतिष विज्ञान -: आकाशीय पिण्डों से निकलने वाली ज्योति रश्मियां स्वयं के बल एवं कोणात्मक दूरी या अन्तर के अनुसार व्यक्तियों को भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रभावित करती हैं। 'ज्योति रश्मियों के प्रभाव का अध्ययन करने वाले विषय को ही 'ज्योतिष विज्ञान' या 'ज्योतिर्विज्ञान कहते हैं।


ज्योतिष के अंग -: आदिकाल की समाप्ति तक ज्योतिष के तीन अंग थे आधुनिक में इसमें दो अंग जोड़े गये हैं।इस प्रकार ज्योतिष के पाँच अंग बन गये हैं।जो निम्नानुसार हैं:


1.सिद्धान्त ज्योतिष -: ज्योतिष विद्या पूर्णतया शुद्ध गणितीय आकलन व परिमाप पर आधारित है। अतः किसी भी व्यक्ति के जन्म के समय या किसी घटना के समय आकाश मंडल के ग्रह, नक्षत्र किस गति,स्थिति पर है तथा उनके उदय,अस्त एवं वक्री होने का व्यक्ति या घटना पर क्या प्रभाव होता है,? इसी गणित के ,सिद्धांत, ज्योतिष कहते हैं।


प्राचीन काल में अट्ठारह सिद्धांत सूर्य सिद्धांत, पितामह सिद्धांत, व्यास सिद्धांत, वशिष्ठ सिद्धांत, लोमश सिद्धांत, पौलिश सिद्धांत, भृगु सिद्धांत,शौनक सिद्धांत आदि प्रचलित थे।


2.सहिंता ज्योतिष -: इसमें  उन  सभी  विषयों  को  शामिल  किया  गया  हैं,  जिनका  किसी  व्यक्ति  राष्ट्र   या समूचे  विश्व पर प्रभाव पड़ता है यथा-भूशोधन,दिकशोधन,गृहारम्भ,जलाशय निर्माण,  वर्षारंभ,  भूकंप आना, ज्वालामुखी फूट पड़ना,अकाल पड़ना,ग्रहण पड़ना, महामारी होना आदि। इसे'संहिता ज्योतिष'  या  'सांसारिक फ़लित ज्योतिष'  भी  कहा जाता है।


प्राचीन पुस्तकों में रावण संहिता,सूर्य संहिता,इंद्र संहिता,  रुद्र संहिता,वराह संहिता,पुलस्य संहिता,जैमिनी संहिता,भृगु संहिता आदि के प्रमुख नाम ही शेष रह गए हैं। 


3.होरा ज्योतिष या जातक शास्त्र -: होरा 'अहोरात्र'शब्द से  बना है। यदि अहोरात्र के आदि का 'अ' तथा  अंत  का  'त्र'अक्षर  लोप  कर दें  तो  'होरा'  शब्द  शेष   रह जाता है।  ऐसा माना जाता है कि अंग्रेजी शब्द Hour (घंटा) होरा से ही निकला है।  इसलिये  जैसे एक अहोरात्र या दिन रात  में  24  होरा  होती हैं, उसी प्रकार एक दिनरात 24 घंटे की होती हैं।


इस शास्त्र द्वारा  व्यक्ति  के  जन्म कालीन  ग्रहों  की  स्थिति  के अनुसार शुभाशुभ फल निरूपित किया जाता है।  जीवन के  सुख-दुख:,इष्ट-अनिष्ट,उन्नति-अवनति, भाग्योदय  आदि का वर्णन इस शास्त्र के विषय हैं।  इस प्रकार इसका सम्बन्ध फलित ज्योतिष  है। 


4.प्रश्न शास्त्र ज्योतिष -: यह शास्त्र तात्कालिक फल कहने वाला शास्त्र हैं। प्रश्नकर्ता द्वारा पूछे गये प्रश्न का उत्तर या फल प्रश्नाक्षरों या प्रश्न करने के समय को आधार मानकर प्रतिपादित किया जाता है। इस संबंध में प्रश्नाक्षर सिद्धांत ,प्रश्न लग्न सिद्धांत एवं स्वरज्ञान सिद्धांत का जन्म हुआ है।  


5.'शकुन शास्त्र ज्योतिष' या 'निर्मित शास्त्र' -: सर्वप्रथम इसमें अरिष्ट विषय ही शामिल किये गये थे। कालांतर में इसकी विषय सीमा में प्रत्येक कार्य के प्रारम्भ पूर्व शुभाशुभ तथ्यों तथा घटनाओं का ज्ञान प्राप्त करना भी आ गया। बसंतराज शकुन अद्भुत सागर जैसे शकुन गर्न्थो की रचना हुई।यही कारण हैं की आधुनिक समय में सभी कार्य शुभ मुहूर्त देखकर ही प्रारम्भ किए जाते हैं।


ज्योतिष का महत्व एवं उपयोगिता -: निम्नानुसार हैं


●मनुष्य के समस्त कार्य ज्योतिष के द्वारा ही चलते हैं। 


●व्यवहार में अत्यंत महत्वपूर्ण एवं उपयोगी दिवस, समय, तिथि,वार, सप्ताह, पक्ष,मास, ऋतु, वर्ष, अयन, गोल,, नक्षत्र, योग, करण, चंद्र संचार, सूर्य स्थिति आदि का ज्ञान ज्योतिष से ही होता है।


● और इस जानकारी के लिये प्रतिवर्ष अनेकानेक स्थान और नाम आधारित पंचांग बनाये जाते हैं। इसमें धार्मिक उत्सव दिवस, सामाजिक त्यौहारों के दिवस, महापुरुषों के जन्म दिवस, राष्ट्रीय पर्व दिवस, महत्वपूर्ण घटनाओं के दिवस एवं उनके उपयुक्त समय दिये  होते हैं। साधारण मनुष्य भी सुनकर या पढ़कर उन्हें समय पर मना सकते हैं।


●इसी प्रकार बहुत सी ऐतिहासिक तिथियों का भी पता लग जाता है। उन पर भी हम मिल बैठकर विचार कर सकते हैं और अपने सुझाव दे सकते हैं तथा सही निर्णय ले सकते हैं। 


● जलचर राशि या जलचर नक्षत्रों में अच्छी वर्षा के आसार होते हैं। 


●अनपढ़ देहाती किसान आकाश मंडल की स्थिति देखकर इसका आसानी से अनुमान लगा लेता है, फसल बोने का समय भांप लेते है, ताकि अच्छी पैदावार हो।


● समुंद्री जहाज के कप्तान भी समुंद्री यात्रा के दौरान सूर्य, चंद्र की गति, स्थिति देखकर समुंद्री मौसम का अनुमान या अंदाज लगा लेते हैं और ठीक समय पर समुचित एवं निरापद मार्ग का अनुसरण करते हैं, इससे हानी की संभावना समाप्त हो जाती है ।


●ज्योतिष की शाखा रेखा गणित से पर्वतों ऊंचाई एवं समुंद्र समुद्रों की गहराई मापी जा सकती हैं।


● सूर्य ग्रहण एवं चंद्र ग्रहण के आधार पर प्राचीनतम  ऐतिहासिक तिथियों की जानकारी हो जाती हैं।


●भूगर्भ से प्राप्त पुरातत्व की वस्तुओं के समय व उनकी आयु का पता भी लग जाता है।


●अक्षांश एवं रेखांश रेखाये दिशा ज्ञान कराती हैं, इस दिशा ज्ञान के आधार पर विश्व के किसी भी भूभाग या स्थान पर पहुंचना सरल और सुविधाजनक हो जाता है।

 

● सृष्टि के अनेकानेक रहस्य यथा योगों की जानकारी सूर्य ग्रहण व चंद्रग्रहण तिथि व समय, ज्वार भाटा की तीव्रता का ठीक समय आदि ज्योतिष द्वारा जान लेते हैं।


● गुणकारी दवाइयों के बनाने के स्थान व समय का ज्ञान हो जाता है,रोगों के उपचार हेतु रोगों समयानुसार उचित दवाई देने से अवगत होते हैं।


● विभिन्न प्रकार के शुभ मुहूर्तों का ज्ञान होता है। इस प्रकार ज्योतिष विज्ञान प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से हम पृथ्वीवाशी मनुष्यों, जीवधारी पशुओं, पक्षियों और जड़ वस्तुओं के लिए सर्वथा उपयोगी एवं लाभकारी हैं।


● अज्ञानता के अंधकार को हटाने वाला 'ज्योति दीप' हैं दूसरे शब्दों में 'ज्योति र्विज्ञान' हैं। 

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एस्ट्रोलॉजी एक ऐसा महा विज्ञान है जो अपने आप में ही एक अदभुत रहस्य को अपने में समाये रखा है प्राचीनकाल  से ही हमारे ऋषिमुनि ज्योतिष विधिया के द्वारा भुत ,भविष्य के बारे में आसानी से बता सकते थे ज्योतिष विधिया पूरी तरह से गृह नक्षत्रो पर आधारित  एक गणितीय विधिया है जो ग्रहों की चाल तथा स्थति के द्वारा भविष्य में  होने  वाली घटनाओं के बारे में बताया जा सकता है ज्योतिष 9 ग्रहों पर आधारित  एक गणितीय विधि है  ये 9 गृह अलग-अलग फल देते है तथा इस के आधार पर ही भविष्य में होने वाली घटनाओं के बारे में जाना जा सकता है  और व्यक्ति के जीवन पर इन ग्रहों का काफी प्रभाव परता है 

ये गृह निम्न प्रकार के होते है 


१ . सूर्य 
२ . चन्द्र
३ . मंगल
४ . बुध
५ . बृहस्पति
६ . शुक्र
७ . शनि
८ . राहू
९ . केतु
१ . सूर्य गृह :-

सूर्य गृह को आत्मा का कारक माना गया है सूर्य गृह सिंह राशि का स्वामी होता है सूर्य पिता का प्रतिनिधित्व भी करता है तांबा,घास,शेर,हिरन सोने के आभूषणआदि का भी कारक होता है सूर्य का निवास स्थान  जंगल किला मंदिर एवं नदी है सूर्य सरीर में हर्दय आँख पेट और चहरे का प्रतिनिधित्व करता है और इस गृह से रक्तचाप गंजापन आँख सिर एवं बुखार संबंधित बीमारीयां होती है सूर्य क्षेत्रीय जाती का है इसका रंग केशरिया माना जाता है सूर्य एक पुरुष गृह है इसमें आयु की गरणा ५० साल की मानी जाती है सूर्य की दिशा पूर्व है जिस व्यक्ति के सूर्य उच्च का होने पर राजा का कारक होता है सूर्य गृह के मित्र चन्द्र मंगल और गुरु को माना जाता है तथा इस गृह के शत्रु शुक्र और शनि है सूर्य गृह अपना असर गेंहू धी पत्थर दवा और माणिक्य पदार्थो पर डालता है लम्बे पेड़ और पित रोग का कारण भी सूर्य गृह होता है सूर्य गृह के देवता महादेव शिव है गर्मी ऋतु सूर्य का मौसम है और इस गृह से शुरू होने वाला नाम 'अ' 'ई' 'उ' 'ए' अक्षरों से चालू होते है

२. चन्द्र गृह :-

चन्द्र गृह सोम के नाम से भी जाना जाता है इन्हें चन्द्र देवता भी कहते है उन्हें जवान सुंदर गौर और मनमोहक दिव्बाहू के रूप में वर्णित किया जाता है और इनके एक हाथ में कमल और दुसरे हाथ में मुगदर रहता है और इनके द्वारा रात में पुरे आकास में अपना रथ चलाते है उस रथ को कही सफ़ेद गोड़ो से खीचा जाता है  चन्द्र गृह जनन क्षमता के देवताओ में से एक है  चन्द्र गृह ओस से जुड़े हुए है उन्हें निषादिपति भी कहा जाता है 

निशा    =    रात  
निषादिपति    =    देवता

शुपारक (जो रात्री को आलोकित करे ) सोम के रूप में वे सोमवार के स्वामी है  और मन माता की रानी का प्रतिनिधित्व करते है वे सत्व गुण वाले है

३. मंगल गृह :- 

मंगल गृह लाल और युद्ध के देवता है और वे ब्रह्मचारी भी  है मंगल गृह वृश्चिकऔर मेष रासी के स्वामी है मंगल गृह को संस्कृत में अंगारक भी कहा जाता है ('जो  लाल रंग का है ') मंगल गृह धरती का पुत्र है अर्थात मंगल गृह को पृथ्वी देवी की संतान माना जाता है मंगल गृह को लौ या लाल रंग में रंगा जाता है चतुर्भुज  एक त्रिशूल मुगदर कमल और एक भाला लिए हुए चित्र किया जाता है उनका वाहन एक भेडा है वे मंगलवार के स्वामी है मंगल गृह की प्रकृति तमस गुण वाली है और वे ऊर्जावान कारवाई ,आत्मविश्वास और अहंकार का प्रतिनिधित्व करते है

४. बुध गृह  :-

बुध गृह व्यपार के देवता है और चन्द्रमा और तारा (तारक) का पुत्र है बुध गृह शांत सुवक्ता और हरे रंग में प्रस्तुत किया जाता है बुध गृह व्यपारियो के रक्षक और रजो गुण वाले है बुध बुधवार के मालिक है उनके एक हाथ में कृपाण और दुसरे हाथ में मुगदर और ढाल होती है बुध गृह रामगर मंदिर में एक पंख वाले शेर की सवारी करते है और शेरो वाले रथ की सवारी करते है बुध गृह सूर्य गृह के सबसे चहिता गृह है

५. बृहस्पति गृह  :-

सभी ग्रहों में से बृहस्पति गृह सभी ग्रहों के गुरु है और शील और धर्म के अवतार है बृहस्पति गृह बलिदानों और प्रार्थनाओ के प्रस्तावक है जिन्हें देवताओ के पुरोहित के रूप में भी जाना जाता है ये गुरु शुक्राचार्य के कट्टर दुश्मन थे देवताओ में ये वाग्मिता के देवता, जिनके नाम कई कृतिया है जैसे की नास्तिक बाह्र्स्पत्य सूत्र .बृहस्पति गृह पीले तथा सुनहरे रंग के है और एक छड़ी एक कमल और अपनी माला धारण करते है वे बृहस्पति गृह के स्वामी है वे सत्व गुनी है और ज्ञान और शिक्षण का प्रितिनिधित्व करते है

६. शुक्र गृह  :-

शुक्र गृह दैत्यों के शिक्षक और असुरो के गुरु है जिन्हें शुक्र गृह के साथ पहचाना जाता है शुक्र ,शुक्र गृह का प्रतिनिधित्व करता है शुक्र गृह साफ़, शुध्द या चमक,स्पष्टता के लिए जाना जाता है और उनके बेटे का नाम भ्रुगु और उशान है वे शुक्रवार के स्वामी है प्रकृति से वे राजसी है और धन ख़ुशी और प्रजनन का प्रतिनिधित्व करते है शुक्र गृह सफ़ेद रंग मध्यम आयु वर्ग और भले चेहरे के है शुक्र गृह घोड़े पर या मगरमच्छ पर वे एक छड़ी ,माला और एक कमल धारण करते है शुक्र की दशा की व्यक्ति के जीवान में २० वर्षो तक सक्रीय बनी रहती है ये दशा व्यक्ति के जीवन में अधिक धन ,भाग्य और ऐशो-आराम देती है अगर उस व्यक्ति की कुंडली में शुक्र मजबूत स्थान पर विराजमान हो और साथ ही साथ शुक्र उसकी कुंडली में एक महत्वपूर्ण फलदायक गृह के रूप में हो शुक्र गृह वैभव का भी कारक होता है

७. शनि गृह :-

शनि गृह तमस प्रकृति का होता है शनि , शनिवार का स्वामी है शनी सामान्यतया कठिन मार्गीय शिक्षण ,कैरियर और दीर्घायु को दर्शाता है शनि शब्द की व्युत्पति शनये क्रमति स: अर्थात, वह जो धीरे-धीरे चलता है शनि को सूर्य की परिक्रमा में ३० वर्ष लगते है शनि सूर्य के पुत्र है और जब उन्होंने एक शिशु के रूप में पहली बार अपनी आँखे खोली , तो सूरज ग्रहण में चला गया,जिसमे ज्योतिष कुंडली पर शनि के प्रभाव का साफ संकेत  मिलता है शनि वास्तव में एक अर्ध देवता  है शनि का चित्रण काले रंग में ,काले लिबास में ,एक तलवार ,तीर और कौए पर सवार होते है

८. राहू गृह  :-

राहू गृह राक्षसी सांप का मुखिया है  राहू  उत्तर चन्द्र /आरोही आसंधि के देवता है राहू ने समुन्द्र मंथन के दौरन असुर राहू ने थोडा दिव्य अमृत पी लिया था अमृत उनके गले से नीचे उतरने से पहले मोहिनी (विष्णु भागवान) ने उसका गला काट दिया तथा इसके उपरांत उनका सिर अमर बना रहा उसे राहू काहा जाता है राहू काल को अशुभ माना जाता है यह अमर सिर कभी-कभी सूरज और चाँद को निगल जाता है जिससे ग्रहण लगता है

९. केतु :-

केतु गृह का मानव जीवन पर इसका जबरदस्त प्रभाव पड़ता है वे केतु अवरोही/दक्षिण चन्द्र आसंधि का देवता है केतु को एक छाया गृह के रूप में माना जाता है  केतु राक्षस सांप की पूँछ के रूप में माना जाता है केतु चन्द्रमा और सूरज को निगलता है केतु और राहू ,आकाशीय परिधि में चलने वाले चन्द्रमा और सूर्य के मार्ग के प्रतिच्छेदन बिंदु को निरुपित करते है इसलिए राहू और केतु को उत्तर और दक्षिण चन्द्र आसंधि कहा जाता है सूर्य को ग्रहण तब लगता है जब सूर्य और चंद्रमा इनमे से एक बिंदु पर होते है ये किसी विशेष परिस्थितियों में यह किसी को प्रसिध्दि के शिखर पर पंहुचने में मदद करता है वह प्रकृति में तमस है और परलौकिक प्रभावों का प्रतिनिधित्व करता है

कुंडली पढ़ना सीखें

१. माता-पिता की कुंडली और संतान :-

पूर्व जन्म तथा वर्तमान जन्म में जातक द्वारा किए गए कर्मों के फल से जातक के भाग्य का निर्माण होता है परंतु जातक के भाग्य निर्माण में जातक के अलावा अन्य लोगों के कर्मों का भी योगदान रहता है। प्राय: लोग इस ओर ध्यान नहीं देते।

कहा जाता है कि बाढ़हि पुत्र पिता के धर्मा। पूर्वजों के कर्म भी उनकी संतानों के भाग्य को प्रभावित करते हैं। दशरथ ने श्रवण कुमार को बाण मारा जिसके फलस्वरूप माता-पिता के शाप के कारण पुत्र वियोग से मृत्यु का कर्मफल भोगना पड़ा। किंतु इसका परिणाम तो उनके पुत्रों, पुत्रवधू समेत पूरे राजपरिवार यहां तक कि अयोध्या की प्रजा को भी भोगना पड़ा।

कहा जाता है कि संगति गुण अनेक फल। घुन गेहूं की संगति करता है। गेहूं की नियति चक्की में पिसना है। गेहूं से संगति करने के कारण ही घुन को भी चक्की में पिसना पड़ता है। देखा जाता है कि किसी जातक के पीड़ित होने पर उसके संबंधी तथा मित्र भी पीड़ित होते हैं। इस दृष्टि से सज्जनों का संग साथ शुभ फल और अपराधियों दुष्टों का संगसाथ अशुभ फल की पूर्व सूचना है। किसी भी अपराधी से संपर्क उसका आतिथ्य या उपहार स्वीकार करना भयंकर दुर्भाग्य विपत्ति को आमंत्रण देना है।

अत: यश-अपयश, उचित-अनुचित का हर समय विचार करके ही कोई काम करना चाहिए, क्योंकि इन्हीं से सुखद-दुखद स्थितियां बनती हैं।

माता-पिता की कुंडली से उनकी संतानों पुत्र-पुत्री के भाग्य के रहस्य प्रकट होते हैं। अत: कुंडली देखते समय इन बातों का ध्यान रखना चाहिए।

२. भगवान श्रीकृष्ण जी की कुंडली की विवेचना :-

द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने भाद्रपद की अष्टमी बुधवार रोहिणी नक्षत्र में अवतार लिया। भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी महान लीलाआें के माध्यम से समाज को बताया कि महान व्यक्तियोंं को न केवल कठिनाइयों को बर्दाश्त करना पड़ता है, बल्कि उनसे प्यार भी करना पड़ता है। 

भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत में अपने विराट स्वरूप का दर्शन कराते हुए अर्जुन को दिव्य ज्ञान देते हुए संदेश दिया कि शांति का मार्ग ही प्रगति एवं समृद्धि का रास्ता है जबकि युद्ध का मार्ग सीधे श्मशान ले जाता है। भगवान श्रीकृष्ण की कुंडली में पूर्ण पुरुष कृष्ण योगी और पंचम भाव में स्थित उच्च के बुद्ध ने जहां उन्हें वाकचातुर्य, विविध, कलाविद् बनाया, वहीं बिना हथियार से वाकचातुर्य से कठिन से कठिन कार्य भी सिद्ध किए तथा स्वगृही बृहस्पति ने आय भाव में, नवम भाव में स्थित उच्च के मंगल ने और शत्रु भाव में स्थित उच्च के शनि ने वीराग्रणी और परम पराक्रमी बनाया। 

माता के स्थान में स्थित स्वगृही सूर्य ने माता-पिता से दूर रखा। सप्तमेश मंगल और लग्र में स्थित उच्च के चन्द्र ने तथा स्वगृही शुक्र ने गोपी गण सेवित रसिक शिरोमणि और कलाप्रेमी सौन्दर्य-उपासक बनाया। लाभ घर के बृहस्पति, नवम भाव में उच्च के मंगल, छठे भाव में स्थित उच्च के शनि, पंचम भाव में स्थित उच्च के बुध और चतुर्थ भाव में स्थित उच्च के सूर्य ने महान पुरुष, शत्रुहन्ता, तत्वज्ञ, विजयी, जननायक और अमर र्कीतकारक बनाया। 

इन्हीं ग्रहों के विराजमान होने के कारण तथा लग्र में उच्च के सूर्य के कारण चंचल नेत्र, समृद्धशाली, ऐश्वर्यवान एवं वैभवशाली चक्रवर्ती राज योग का निर्माण किया। भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत में अधर्म पर धर्म की विजय की पताका फहराई पांडव रूपी धर्म की रक्षा की एवं कौरव रूपी अधर्मियों का नाश किया।

३. कुंडली में ग्रह तथा वास्तु का समन्वय :-

मानव सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, अत: सुख शांतिपूर्वक रहने के लिए आवास में वास्तु की जरूरत होती है। नए घर के निर्माण के लिए भूमि चयन, भूमि परीक्षा, भूखंडों का आकार-प्रकार, भवन निर्माण विधि एवं पंच तत्वों पर आधारित कमरों का निर्माण इत्यादि बातों के बारे में जानकारी आवश्यक है।

जन्म कुंडली में चौथे भाव पर शुभ ग्रहों के अभाव व भावेश के बलाबल के आधार पर मकान सुख के बारे में जानकारी प्राप्त होती है तथा चौथे भाव भावेश अथवा इन पर दृष्टि डालने वाले ग्रहों अथवा चौथे भाव भावेश का स्वामी जिस नक्षत्र पर हो, उस नक्षत्र स्वामी की दशा-अंतर्दशा से मकान का सुख प्राप्त होता है।

 मंत्र : ओम नमो वैश्वानर वास्तु रुपाय भूपति एवं मे देहि काल स्वाहा।

 भूखंड का आकार आयताकार, वर्गाकार, चतुष्कोण अथवा गोलाकार शुभ होता है।

भूमि परीक्षण के क्रम में भूखंड के मध्य में भूस्वामी अपने एक हाथ से लम्बा चौड़ा व गहरा गड्ढा खोदकर उसे उसी मिट्टी से भरने पर मिट्टी कम हो जाने से अशुभ लेकिन सम या मिट्टी शेष रहने में उत्तम जानें। दोष-निवारण के लिए उस गड्ढे में अन्य जगह से शुद्ध मिट्टी लाकर भर दें। खुदाई करने पर चूडिय़ां, ऐनक, सर्प, बिच्छू, अंडा, पुराना कोई वस्त्र या रूई निकले तो अशुभ जानें। निवारण के लिए उपरोक्त मंत्र को कागज में लिख कर सात बार पढ़कर पूर्व दिशा में जमीन में गाड़ दें।

४. कुंडली में जानिए आपकी पत्नी कैसी होगी? :-

हर पुरुष की तमन्ना होती है कि उसे सुंदर पत्नी मिले। इसीलिए हर पुरुष अपनी होने वाली पत्नी के बारे में जानने के लिए उत्साहित रहता है लेकिन वह सोच नहीं पाता कि वह ऐसा कैसे करें?

ये सब जानने के लिए अपनाइए ये आसान सा तरीका। जी हां इस तरीके से आप खुद ही जान लेंगे कि आपकी पत्नी सुंदर होगी या सामन्य रुप रंग की। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार कुंडली का सातवां घर विवाह स्थान होता है। अगर कुण्डली में शुक्र पहले घर में बैठा हो या गुरू से सातवें घर में शुक्र बैठा है तो सुंदर पत्नी प्राप्त होती है।

सातवें घर में जो राशि है उस राशि के स्वामी ग्रह को शुक्र देख रहा हो या गुरू सातवें घर में बैठा है तो सुंदर जीवनसाथी प्राप्त होता है। कुंडली में अगर शुक्र सातवें घर में तुला, वृष या कर्क राशि में बैठा है तो आपकी पत्नी गोरे रंग की होगी और उसके नयन नक्श आकर्षक होंगे।

५. प्रॉपर्टी में निवेश और ग्रहों की चाल :-

जमीन-जायदाद में निवेश करना आज के समय में फायदे का व्यापार साबित हो रहा है। प्रॉपर्टी में निवेश के ग्रह नक्षत्रों का संबंध ज्योतिष से बहुत गहरा होता है। किस व्यक्ति को प्रॉपर्टी में निवेश से फायदा होगा, इसका निर्धारण उसकी जन्मपत्री में इस व्यापार से संबंधित ग्रह व भाव के अवलोकन से हो सकता है। प्रॉपर्टी में निवेश करने से पहले इन ग्रहों को जान लेना जरूरी होता है।

जन्म कुंडली के चतुर्थ भाव से जमीन-जायदाद तथा भू-सम्पत्ति के बारे में विचार किया जाता है। यदि चतुर्थ भाव तथा उसका स्वामी ग्रह शुुभ राशि में, शुभ ग्रह या अपने स्वामी से युत या दृष्ट हो, किसी पाप ग्रह से युत या दृष्ट न हो तो, जमीन संबंधी व्यापार से शुभ फलों की प्राप्ति होती है। भूमि का कारक ग्रह मंगल है। अत: कुंडली में चतुर्थ भाव, चतुर्थेश तथा मंगल की शुभ स्थिति से भूमि संबंधी व्यापार से फायदा होगा।

भूमि के व्यापार में जमीन का क्रय-विक्रय करना, प्रॉपर्टी में निवेश कर लाभ में बेचना, दलाली के रूप में काम करना तथा कॅालोनाइजर के रूप में स्कीम काटकर बेचना इत्यादि शामिल है, ऐसे सभी व्यापार का उद्देेश्य आय बढ़ाकर धन कमाना होता है। अत: भूमि से संबंधित ग्रहों का शुभ संयोग कुंडली के धन (द्वितीय) तथा आय (एकादश) भाव से भी होना आवश्यक है।

चतुर्थ भाव का स्वामी एवं मंगल उच्च, स्वग्रही अथवा मूल त्रिकोण का होकर शुभ युति में हो तथा धनेश, लाभेश से संबंध बनाए तो प्रॉपर्टी के कारोबार से उत्तम फलों की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार चतुर्थ भाव का स्वामी धनेश, लाभेश, लग्न अथवा दशम भाव के स्वामी से राशि परिवर्तन करे तो, उस व्यक्ति को भूमि के क्रय-विक्रय से धन लाभ होता है।

७. कुंडली और भाग्य उदय :-

व्यक्ति जीवन में सफल हो तो जीवन में खुशियां अपने आप आ ही जाती हैं लेकिन असफल होने पर सारे सुख-साधन व्यर्थ और जीवन नीरस लगने लगता है। जीवन में ऊर्जा आत्मविश्वास बनकर हमारे व्यक्तित्व में झलकती है तो सफलता बनकर करियर में। जितना हमारे व्यवक्तिगत गुण और संस्कार महत्व रखते हैं, उतना ही महत्व रखता है हमारा भाग्य और हमारे आसपास के वातावरण में मौजूद अदृश्य ऊर्जाशक्तियां । 

हकीकत में धन ध+न का रहस्य वे ही समझ पाएं है जो ध यानी भाग्य और न यानी जोखिम दोंनो को साथ लेकर चलते रहे हैं। जन्म कुंडली में जिस स्थान पर धनु और वृश्चिक राशियां होंगी उसी स्थान से धन कमाने के रास्ते खुलेंगे। जब जोखिम है तो भाग्य को आगे आना ही है, जब तक जोखिम नहीं है तब तक भाग्य भी नहीं है। 

गुरु सोना है तो मंगल पीतल अब होता यह है की ऐसी अवस्था में जब भी मंगल और गुरु की युति हो जाती है तो पीतल सोने की चमक को दबाने लगता है। सोने में मिलावट होनी शुरू हो जाती है अर्थात काबिल होते हुए भी आपकी क्षमताओं का उचित मूल्यांकन नहीं होता। आपसे कम गुणी लोग आपको ओवरटेक करके आगे निकल जाते हैं और धन कहां से बचना है जब व्यय के रूप में मंगल व रोग के रूप में शुक्र लग्न में बनने वाले धनपति योग को तबाह करने पर तुल जाते हैं तो पैसा आने से पहले उसके जाने का रास्ता तैयार रहता है। 

ऐसी अवस्था में किसी वशिष्ट विद्वान के परामर्श से सवा सात रत्ती का पुखराज धारण करें। प्रतिदिन माथे पर चन्दन का तिलक लगाएं, शुक्र को हावी न होने दें अर्थात महंगी बेकार की वस्तुएं न खरीदें ,खाने पीने ,पार्टी दावत,व महंगे परिधानों पर बेकार खर्च न करें। 

कुंडली में लग्न से नवां भाव भाग्य स्थान होता है। भाग्य स्थान से नवां भाव अर्थात भाग्य का भी भाग्य स्थान पंचम भाव होता है। द्वितीय व एकादश धन को कण्ट्रोल करने वाले भाव होते हैं। तृतीय भाव पराक्रम का भाव है.अततः कुंडली में जब भी गोचरवश पंचम भाव से धनेश, आएश, भाग्येश व पराक्रमेश का सम्बन्ध बनेगा वो ही समय आपके जीवन का शानदार समय बनकर आएगा। ये सम्बन्ध चाहे ग्रहों की युति से बने चाहे आपसी दृष्टि से बनें।

कुण्डली में कुयोग :- मनुष्य की जन्मकुंडली में ऐसे कुछ कुयोग होते है, जिनकी वजह से कठिनाइयों जैसे-पढ़ाई में मन नहीं लगना व मुश्किल होना,नौकरी-धंधे में कामयाबी नहीं मिलना,शादी में देरी या मुश्किल से शादी का होना और पति-पत्नी के सुख का नहीं मिलना या कमी होना। मेहनत करने पर भी रुपये-पैसे की स्थिति में परिवर्तन नहीं हो पाता है। मकान बनाने का योग नहीं बन पाते है। बीमारी का लम्बे समय तक पीछा नहीं छोड़ना आदि मुसीबतों का कारण जन्मकुंडली में कुयोगों के बनने से होता है।


कुयोगों के कारण एवं निवारण के उपाय :-ज्योतिष शास्त्र में कई तरह के कुयोगों के बारे में बताया गया है, जिनमें से कुछ के कारण एवं निवारण के उपाय निम्नलिखित है


(क) पढ़ाई में परेशानी :- कुंडली का पांचवा घर,पांचवे घर का स्वामी, दशवा घर,दशवें घर का स्वामी, बुध-जीव, बलवान होने पर और इन पर शुभ ग्रहों का प्रभाव पड़ने से  पढ़ाई में सफलता मिलकर अच्छी रहती है।


यदि पाचवें घर का स्वामी अशुभ घर में पाप ग्रह की राशि में या पाप ग्रह के द्वारा देखा जाता है, तो पढ़ाई में मुश्किल आती हैं।


यदि पाचवें घर का स्वामी नीच राशि में हो,पापग्रह के साथ हो, पाप ग्रह की राशि में या पाप ग्रह के द्वारा देखा जाता है, तो पढ़ाई में मुश्किल आती हैं।


पांचवे घर एवं दशवें घर में पापग्रह हो और इनके स्वामी कमजोर हो,तो पढ़ाई में मुश्किल आती है।


पांचवे घर का स्वामी या दशवें घर का स्वामी से छठे घर के स्वामी से या आठवें घर के स्वामी के साथ परिवर्तन योग हो,तो व्यक्ति अपनी मनपसंद विद्या के ज्ञान को प्राप्त नहीं कर पाता है।


बुध-जीव कमजोर होकर खराब घर में बैठे हो,तो भी इंसान अपने मनपसंद विषय की पढ़ाई करने में सफल नहीं हो पाता है।


निवारण के उपाय :- पढ़ाई की परेशानी को खत्म करने के लिए एवं पढ़ाई सम्बन्धी कुयोगों के निवारण के लिए कुयोग सम्बंधी ग्रह का पुखराज या पन्ना रत्न को धारण करना चाहिए ।


 मन्त्र :- 


ऊँ बुं बुधाय नमः।

ऊँ ब्रां ब्रीं ब्रौं सः बुधाय नमः।

ऊँ ह्रीं क्लीं हूं बृहस्पते नमः। 


आदि मंत्रो का जाप करवाना चाहिए।


(ख) धंधे या व्यवसाय में मुश्किलें :- धंधे में एक जगह पर नहीं टिक पाना,कई धंधे-नौकरी का बार-बार बदलाव का होना या धंधे-नौकरी में मन का नहीं लगना, उन्नति के अवसर का नहीं मिलना अथवा नौकरी का बहुत मेहनत करने पर भी मुश्किल से मिलना आदि कारणों की वजह जन्मकुंडली में कुयोगों के निशान होते है।


दशवें घर ,दशवें घर के स्वामी का कमजोर होना और 6-8-12 वें घर के स्वामियों से पीड़ित होने से धंधे-नौकरी में बार-बार उत्पन्न करते है


धंधे की बाधा निवारण के उपाय :- के लिए हीरा या माणिक्य रत्न को पहनना चाहिए।


मंत्रो का जाप :-


ऊँ ह्रीं श्रीं शुक्राय नमः।

ऊँ द्रां द्रीं द्रौं सःशुक्राय नमः।

ऊँ ह्रीं ह्रौं सुर्याय नमः। 


आदि मंत्रो का जाप करने से धंधे सम्बन्धी मुसीबत का समाधान हो जाता है।


भगवान गणेश जी की पूजा करनी चाहिए।


(ग) जायदाद की मुसीबत :- दूसरे,बारहवे और चोथे घर के स्वामी पाप ग्रह से सयोंग होकर आठवें घर मे स्थित हो,तो व्यक्ति सर्वदा किराये के मकान में रहता है।


दुश्मन जगह में पापग्रह होने पर या पापग्रह चौथे या सुख घर को देखने पर  व्यक्ति को घर का सुख नहीं मिलता है।


नीच राशि या दुश्मन राशि में भौम अथवा रवि के स्थित होने पर भी मनुष्य को घर का सुख नहीं मिलता है।


चोथे घर का स्वामी बारहवें घर में हो तो इंसान दूसरे के घर मे निवास करता है। आठवें घर में होने पर घर का अभाव होता है।


जायदाद की मुसीबत के निवारण के उपाय :- जन्मकुंडली में सम्बंधित ग्रह के साथ-साथ भूमिकारक ग्रह मंगल का रत्न मूंगा को पहनना चाहिए।


मन्त्र :-


ऊँ अंगारकाय नमः।

ऊँ क्रां क्रीं क्रौं सः भौमाय नमः।


मंगल ग्रह से सम्बंधित मंत्रो का जप और दान देने पर घर आवास बाधा का निवारण होता है।


पवनपुत्र हनुमान जी की पूजा व आराधना करने से घर,जमीन-जायदाद से सम्बंधित विवाद से मुक्ति मिल जाती है।


(घ) आर्थिक या रुपये-पैसे सम्बन्धी परेशानी :- रुपये-पैसे सम्बन्धी परेशानी की स्थिति के लिए जन्मकुंडली में दूसरा घर,दूसरे घर के स्वामी, ग्यारहवा घर, ग्यारहवें घर के स्वामी, जीव,भृगु से विचार किया जाता है।


यदि जन्मकुंडली में दूसरा घर,दूसरे घर के स्वामी, ग्यारहवा घर, ग्यारहवें घर के स्वामी, जीव,भृगु  कारक ग्रह कमजोर, शत्रु एवं नीच राशि में होने से रुपये-पैसे सम्बन्धी स्थिति खराब हो जाती है।


आर्थिक या रुपये-पैसे सम्बन्धी परेशानी का निवारण:-आर्थिक, उन्नति,धन समृद्धि के लिए सम्बन्धित ग्रह का रत्न नीलम या पन्ना को पहनना चाहिए।


मन्त्र :-


ऊँ ऐं ह्रिं श्रीं शनैश्चराय नमः।।

ऊँ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः।।

ऊँ बुं बुधाय नमः।।

ऊँ ब्रां ब्रीं ब्रौं सः बुध्याय नमः।। 


आदि मंत्रो का जप करने आर्थिक, उन्नति,धन समृद्धि में बढ़ोतरी होगी।


आर्थिक, उन्नति,धन समृद्धि के लिए सम्बन्धित ग्रह से सम्बन्धित वस्तुओं का दान करना चाहिए।


माता लक्ष्मी जी की कृपा पाने के लिए उनके मन्त्र का जाप करना चाहिए और वैभव लक्ष्मी जी का शुक्रवार को व्रत करने से लाभ की प्राप्ति होगी।


(च) कालसर्प योग :- जन्मकुंडली में कालसर्प योग एक कुयोग होता है। कालसर्प दोष के अंतर्गत राहु व केतु के बीच में सभी ग्रह आ जाते है। कालसर्प के जीवन मुसीबतों वाला हो जाता है और जीवन में सुखों को कमी आ जाती है या जगह का बदलाव होना ,दुश्मनों द्वारा षड्यंत्र की योजना बनाना,विचारों में टकराव होना,रुपये-पैसे की कमी आना, बीमारियों से घिर जाना और बिना मतलब की मुसीबतें आदि का आना ये सभी इस योग के लक्षण है।


कालसर्प योग के निवारण के लिए :- सम्बन्धित ग्रह का रत्न गोमेद को धारण करना चाहिए।


मन्त्र :-


ऊँ भ्रां भ्रीं भ्रौं सः राहवे नमः।। 


आदि का जाप करना व दान देने से अशुभ प्रभाव कम होता है। 

जन्म कुंडली का अध्यन

१. जन्म कुंडली का परिचय :-

जन्म कुंडली को पढ़ने के लिए कुछ बातों को ध्यान में रखा जाता है. आइए सबसे पहले उन बातो को आपके सामने रखने का प्रयास करें. जन्मकुंडली बच्चे के जन्म के समय विशेष पर आकाश का एक नक्शा है.

जन्म कुंडली में एक समय विशेष पर ग्रहो की स्थिति तथा चाल का पता चलता है. जन्म कुंडली में बारह खाने बने होते हैं जिन्हें भाव कहा जाता है. जन्म कुण्डली अलग - अलग स्थानो पर अलग-अलग तरह से बनती है. जैसे भारतीय पद्धति तथा पाश्चात्य पद्धति. भारतीय पद्धति में भी उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीय तथा पूर्वी भारत में बनी कुंडली भिन्न होती है.

जन्म कुंडली बनाने के लिए बारह राशियों का उपयोग होता है, जो मेष से मीन राशि तक होती हैं. बारह अलग भावों में बारह अलग-अलग राशियाँ आती है. एक भाव में एक राशि ही आती है. जन्म के समय भचक्र पर जो राशि उदय होती है वह कुंडली के पहले भाव में आती है.

अन्य राशियाँ फिर क्रम से विपरीत दिशा में चलती है. माना पहले भाव में मिथुन राशि आती है तो दूसरे भाव में कर्क राशि आएगी और इसी तरह से बाकी राशियाँ भी चलेगी. अंतिम और बारहवें भाव में वृष राशि आती है.

वक्री और मार्गी ग्रहों का जन्मकुंडली में महत्व :- जब मनुष्य जन्मपत्रिका बनवाता है,तो उस जन्मपत्रिका में ग्रहों के मार्गी एवं वक्री शब्दों का प्रयोग किया हुआ मिलता है। पंचागों में भी ग्रहों के मार्गी व वक्री होने का विवरण मिलता है।

वक्री का अर्थ :- होता है कि, जो ग्रह सीधे-सीधे चलते हुए अचानक पीछे की ओर चलने लग जाते है, उसे वक्री कहते है।

जन्मपत्रिका में जो ग्रह वक्री होता है, उसके नीचे क्रॉस का निशान लगा देते है। कम्प्यूटर द्वारा बनी हुई जन्मपत्रिका में वक्री ग्रह के आगे 'R' यानी 'O'Retrograde शब्द का प्रयोग करते है।

फलित ज्योतिष में वक्री ग्रह के सम्बन्ध में नहीं कोई मुख्यतौर से चर्चा नहीं मिलती है और नहीं कोई इस विषय पर स्वतंत्र ग्रन्थ का विवरण मिलता है।

लेकिन पञ्चाङ्ग को बनाने वालों ने ग्रह को वक्री मानकर वक्री संकेतों का उपयोग किया है। अब प्रश्न यह है कि कोई ग्रह वक्री भी हो सकता है?

क्योंकि सभी ग्रह अपनी कक्षा में स्थित होकर सूर्य के चारों ओर चक्र को पूरा करते है। सूर्य को छोडकर किसी भी ग्रह का घूमने का काल एक समान नहीं होता और न ही उनकी गति एक जैसी होती है।

पञ्चाङ्ग के अंदर सभी ग्रहों की गति का विवरण मिल जाता है। यदि तेज गति से चलते हुए वाहन को एकदम ब्रेक लगाते है तो घर्षण के द्वारा जोर की आवाज आवेगी और दुर्घटना हो सकती है। ग्रहों की गति बहुत तेज होती है, यदि वह अचानक रुककर पीछे की ओर चलने लगे तो उसी समय समस्त सृष्टि ही प्रभावित होने लगती है।

ज्योतिषी लोग पंचागों व तंत्रियों में लिखते है कि अमुक ग्रह अमुक तारीख को वक्री होगा और अमुक तारीख को मार्गी होगा।

मार्गी का अर्थ :- होता है कि ग्रह का सीधा चलता रहना।

हमारे ऋषियों ने जब ग्रहों का अध्ययन किया होगा ,तो कई ग्रह पीछे की ओर जाते दिखाई दिए होंगे। आज भी अगर वेद यन्त्रों से हम ग्रहों को देखते है तो कई ग्रह पीछे की ओर जाते दिखाई देते है और इसी तरह से हम यह मान लेते है कि अमुक ग्रह वक्री हो गया।ऐसा दिखाई देना केवल हमारा दृष्टि भ्रम होता है। उदाहरण के लिए जब हम रेलगाड़ी से यात्रा करते हुए खिड़की से बाहर देखते हैं तो हमें पेड़ पौधे व अन्य वस्तुएं पीछे की ओर जाती हुई दिखाई देती हैं। इसी तरह जब प्लेटफार्म पर रुकी हुई रेलगाड़ी के डिब्बे में बैठे होते है और उसी समय समानान्तर पटरी पर कोई दूसरी रेलगाड़ी आती दिखाई देती है और जब हम खिड़की में से देखते है तो हमें हमारी ट्रेन चलती हुई दिखाई देती है, जबकि हमारी ट्रेन तो रुकी हुई होती है, इस तरह दिखाई देना केवल हमारा दृष्टि भ्रम ही होता है।

वास्तव में होता यह है कि जब पृथ्वी की गति अपनी धुरी पर अपने समान्तर चलने वाले ग्रह से तेज होती है, तब हमें समान्तर चलने वाला ग्रह पीछे की ओर जाता हुआ दिखाई पड़ता है और कह देते है कि अमुक ग्रह वक्री हो गया, किन्तु व्यवहारिक तौर पर ग्रह कभी विपरीत नहीं चलते है।

जब हम किसी ग्रह को वक्री कहते है, तब वास्तव में उस ग्रह की पृथ्वी की गति से तुलना में मन्द गति होने की सूचना देती है और उस स्थिति में उस ग्रह विशेष की ताकत कुछ कम मानी जाती है।

सूर्य और चन्द्रमा कभी वक्री नहीं होते है, क्योंकि इनकी गति हमेशा पृथ्वी की गति से तेज रहती है। बाकी सभी ग्रहों की चाल में बदलाव होता रहता है जिसके कारण से बाकी ग्रह कभी वक्री और कभी मार्गी होते रहते है।

वक्री ग्रह का जन्मपत्रिका में बहुत ही महत्व होता है व फलादेश में भी काफी बदलाव आ जाते है।

वास्तव में कोई ग्रह न तो कभी वक्री होता है न मार्गी होता है, यह सब उस ग्रह का चारों तरफ घूमने की चाल में बदलाव आने के कारण दिखाई देता है, उसी के आधार पर उनकी उपरोक्त व्याख्या कर दी जाती है।

जब मनुष्य या जीव-जन्तु अपनी सामान्य स्वभाव के अनुसार आचरण करते हुए अचानक असामान्य दशा में बदलाव किसी तरह से होता है तो उसके प्राकृतिक व्यवहार व आचरण आदि में परिवर्तन आ जाता है।

इसी तरह जब कोई ग्रह अपनी सामान्य गति से मन्द या तेज गति में होता है तो पृथ्वीवासियों पर इसका प्रभाव पड़ता है। इसलिए किसी ग्रह के वक्री होने पर ग्रह की सामान्य प्रकृति के अनुसार प्रभाव न पड़कर असामान्य प्रभाव पड़ता है, जिससे उसकी क्रियाएं भी असामान्य हो जाती है।

यह हम सब जानते है कि पृथ्वी पर मौसम में बदलाव होता रहता है। कभी गर्मी,कभी सर्दी,कभी बसन्त एवं कभी वर्षा होती है। यह सब बदलाव सूर्य के उत्तरायण व दक्षिणायन में होने पर होता है। पृथ्वी पर रहने वाले मनुष्य, जीव-जन्तु, पशु-पक्षी एवं समस्त वनस्पति मौसम के बदलाव से प्रभावित होते रहते है। अतः फलित करते समय गोचर ग्रहों की प्रकृति एवं वक्री ग्रहों की प्रकृति को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए।

२. भाव का परिचय :-

जन्म कुंडली में भाव क्या होते हैं आइए उन्हेँ जानने का प्रयास करें. जन्म कुंडली में बारह भाव होते हैं और हर भाव में एक राशि होती है. कुँडली के सभी भाव जीवन के किसी ना किसी क्षेत्र से संबंधित होते हैं. इन भावों के शास्त्रो में जो नाम दिए गए हैं वैसे ही इनका काम भी होता है. पहला भाव तन, दूसरा धन, तीसरा सहोदर, चतुर्थ मातृ, पंचम पुत्र, छठा अरि, सप्तम रिपु, आठवाँ आयु, नवम धर्म, दशम कर्म, एकादश आय तो द्वादश व्यय भाव कहलाता है

सभी बारह भावों को भिन्न काम मिले होते हैं. कुछ भाव अच्छे तो कुछ भाव बुरे भी होते हैं. जिस भाव में जो राशि होती है उसका स्वामी उस भाव का भावेश कहलाता है. हर भाव में भिन्न राशि आती है लेकिन हर भाव का कारक निश्चित होता है.

बुरे भाव के स्वामी अच्छे भावों से संबंध बनाए तो अशुभ होते हैं और यह शुभ भावों को खराब भी कर देते हैं. अच्छे भाव के स्वामी अच्छे भाव से संबंध बनाए तो शुभ माने जाते हैं और व्यक्ति को जीवन में बहुत कुछ देने की क्षमता रखते हैं. किसी भाव के स्वामी का अपने भाव से पीछे जाना अच्छा नहीं होता है, इससे भाव के गुणो का ह्रास होता है. भाव स्वामी का अपने भाव से आगे जाना अच्छा होता है. इससे भाव के गुणो में वृद्धि होती है.

३. ग्रहो की स्थिति :-

जन्म कुंडली मैं सबसे आवश्यक ग्रहों की स्थिति है, आइए उसे जाने़. ग्रह स्थिति का अध्ययन करना जन्म कुंडली का बहुत महत्वपूर्ण पहलू है. इनके अध्ययन के बिना कुंडली का कोई आधार ही नहीं है.

पहले यह देखें कि किस भाव में कौन सा ग्रह गया है, उसे नोट कर लें. फिर देखें कि ग्रह जिस राशि में स्थित है उसके साथ ग्रह का कैसा व्यवहार है. जन्म कुंडली में ग्रह मित्र राशि में है या शत्रु राशि में स्थित है, यह एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू है इसे नोट करें. ग्रह उच्च, नीच, मूल त्रिकोण या स्वराशि में है, यह देखें और नोट करें.

जन्म कुंडली के अन्य कौन से ग्रहों से संबंध बन रहे है इसे भी देखें. जिनसे ग्रह का संबंध बन रहा है वह शुभ हैं या अशुभ हैं, यह जांचे. जन्म कुंडली में ग्रह किसी तरह के योग में शामिल है या नहीं, जैसे राजयोग, धनयोग, अरिष्ट योग आदि अन्य बहुत से योग हैं.

४. कुंडली का फलकथन :-

फलकथन की चर्चा करते हैं, भाव तथा ग्रह के अध्ययन के बाद जन्म् कुंडली के फलित करने का प्रयास करें. पहले भाव से लेकर बारहवें भाव तक के फलों को देखें कि कौन सा भाव क्या देने में सक्षम है.

कौन सा भाव क्या देता है और वह कब अपना फल देगा यह जानने का प्रयास गौर से करें. भाव, भावेश तथा कारक तीनो की कुंडली में स्थिति का अवलोकन करना आवश्यक होता है. जन्म कुंडली में तीनो बली हैं तो जीवन में चीजें बहुत अच्छी होगी.

तीन में से दो बली हैं तब कुछ कम मिलने की संभावना बनती है लेकिन फिर भी अच्छी होगी. यदि तीनो ही कमजोर हैं तब शुभ फल नहीं मिलते हैं और परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है.

५. दशा का अध्ययन :-

अभी तक बताई सभी बातों के बाद दशा की भूमिका आती है, बिना अनुकूल दशा कै कुछ् नहीं मिलता है. आइए इसे समझने का प्रयास करें. सबसे पहले यह देखें कि जन्म कुंडली में किस ग्रह की दशा चल रही है और वह ग्रह किसी तरह का कोई योग तो नहीं बना रहा है.

जिस ग्रह की दशा चल रही है वह किस भाव का स्वामी है और कहाँ स्थित है, यह जांचे. कुंडली में महादशा नाथ और अन्तर्दशानाथ आपस में मित्रता का भाव रखते है या शत्रुता का भाव रखते हैं यह देखें.

कुंडली के अध्ययन के समय महादशानाथ से अन्तर्दशानाथ किस भाव में स्थित है अर्थात जिस भाव में महादशानाथ स्थित है उससे कितने भाव अन्तर्दशानाथ स्थित है, यह देखें. महादशानाथ बली है या निर्बल है इसे देखें. महादशानाथ का जन्म और नवांश कुंडली दोनो में अध्ययन करें कि दोनो में ही बली है या एक मे बली तो दूसरे में निर्बल तो नहीं है यह देखें.

६. गोचर का अध्ययन :-

सभी बातो के बाद आइए अब ग्रहो के गोचर की बात करें. दशा के अध्ययन के साथ गोचर महत्वपूर्ण होता है. कुंडली की अनुकूल दशा के साथ ग्रहों का अनुकूल गोचर भी आवश्यक है तभी शुभ फल मिलते हैं.

किसी भी महत्वपूर्ण घटना के लिए शनि तथा गुरु का दोहरा गोचर जरुरी है. जन्म कुंडली में यदि दशा नहीं होगी और गोचर होगा तो अनुकूल फलों की प्राप्ति नहीं होती है क्योकि अकेला गोचर किसी तरह का फल देने में सक्षम नहीं होता है.

ज्योतिष शास्त्र में चन्द्रमा

१. ज्योतिष में चन्द्रमा का महत्त्व :-

भारतीय वैदिक ज्योतिष में चन्द्रमा को बहुत महत्त्व दिया जाता है तथा व्यक्ति के जीवन से लेकर विवाह और फिर मृत्यु तक बहुत से क्षेत्रों के बारे में जानने के लिए कुंडली में चन्द्रमा की स्थिति का ध्यानपूर्वक अध्ययन करना आवश्यक माना जाता है। उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति के जन्म के समय चन्द्रमा जिस नक्षत्र में स्थित हों, उसी नक्षत्र को उस व्यक्ति का जन्म नक्षत्र माना जाता है जिसके साथ उसके जीवन के कई महत्त्वपूर्ण तथ्य जुड़े होते हैं जैसे कि व्यक्ति का नाम भी उसके जन्म नक्षत्र के अक्षर के अनुसार ही रखा जाता है।

भारतीय ज्योतिष पर आधारित दैनिक, साप्ताहिक तथा मासिक भविष्य फल भी व्यक्ति की जन्म के समय की चन्द्र राशि के आधार पर ही बताए जाते हैं। किसी व्यक्ति के जन्म के समय चन्द्रमा जिस राशि में स्थित होते हैं, वह राशि उस व्यक्ति की चन्द्र राशि कहलाती है। भारतीय ज्योतिष में विवाह संबंधित वर-वधू के आपस में तालमेल को परखने के लिए प्रयोग की जाने वाली कुंडली मिलान की प्रणाली में आम तौर पर गुण मिलान को ही सबसे अधिक महत्त्व दिया जाता है जो कि पूर्णतया वर-वधू की कुंडलियों में चन्द्रमा की स्थिति के आधारित होता है। वैदिक ज्योतिष के एक मत के अनुसार विवाह दो मनों का पारस्परिक मेल होता है तथा चन्द्रमा प्रत्येक व्यक्ति के मन का सीधा कारक होने के कारण इस मेल को देखने के लिए सबसे महत्वपूर्ण माने जाते हैं। इसके अतिरिक्त भारतीय ज्योतिष में प्रचलित गंड मूल दोष भी चन्द्रमा की कुंडली में स्थिति से ही देखा जाता है तथा वैदिक ज्योतिष के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में प्रभाव डालने वालीं विंशोत्तरी दशाएं भी व्यक्ति की जन्म कुंडली में चन्द्रमा की स्थिति के अनुसार ही देखीं जातीं हैं। इस प्रकार चन्द्रमा का भारतीय ज्योतिष के अनेक क्षेत्रों में बहुत महत्त्व है तथा कुंडली में इस ग्रह की स्थिति को भली-भांति समझना आवश्यक है।

चन्द्रमा एक शीत और नम ग्रह हैं तथा ज्योतिष की गणनाओं के लिए इन्हें स्त्री ग्रह माना जाता है। चन्द्रमा प्रत्येक व्यक्ति की कुंडली में मुख्य रूप से माता तथा मन के कारक माने जाते हैं और क्योंकि माता तथा मन दोनों ही किसी भी व्यक्ति के जीवन में विशेष महत्त्व रखते हैं, इसलिए कुंडली में चन्द्रमा की स्थिति कुंडली धारक के लिए अति महत्त्वपूर्ण होती है। माता तथा मन के अतिरिक्त चन्द्रमा रानियों, जन-संपर्क के क्षेत्र में काम करने वाले अधिकारियों, परा-शक्तियों के माध्यम से लोगों का उपचार करने वाले व्यक्तियों, चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े व्यक्तियों, होटल व्यवसाय तथा इससे जुड़े व्यक्तियों तथा सुविधा और ऐशवर्य से जुडे ऐसे दूसरे क्षेत्रों तथा व्यक्तियों, सागरों तथा संसार में उपस्थित पानी की छोटी-बड़ी सभी इकाईयों तथा इनके साथ जुड़े व्यवसायों और उन व्यवसायों को करने वाले लोगों के भी कारक होते हैं।

किसी व्यक्ति की कुंडली से उसके चरित्र को देखते समय चन्द्रमा की स्थिति अति महत्त्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि चन्द्रमा सीधे तौर से प्रत्येक व्यक्ति के मन तथा भावनाओं को नियंत्रित करते हैं। चन्द्रमा वृष राशि में स्थित होकर सर्वाधिक बलशाली हो जाते हैं तथा इस राशि में स्थित चन्द्रमा को उच्च का चन्द्रमा कहा जाता है। वृष के अतिरिक्त चन्द्रमा कर्क राशि में स्थित होने से भी बलवान हो जाते हैं जो कि चन्द्रमा की अपनी राशि है। चन्द्रमा के कुंडली में बलशाली होने पर तथा भली प्रकार से स्थित होने पर कुंडली धारक स्वभाव से मृदु, संवेदनशील, भावुक तथा अपने आस-पास के लोगों से स्नेह रखने वाला होता है। ऐसे लोगों को आम तौर पर अपने जीवन में सुख-सुविधाएं प्राप्त करने के लिए अधिक प्रयास नहीं करने पड़ते तथा इन्हें बिना प्रयासों के ही सुख-सुविधाएं ठीक उसी प्रकार प्राप्त होती रहतीं हैं जिस प्रकार किसी राजा की रानी को केवल अपने रानी होने के आधार पर ही संसार के समस्त ऐश्वर्य प्राप्त हो जाते हैं।

क्योंकि चन्द्रमा मन और भावनाओं पर नियत्रण रखते हैं, इसलिए चन्द्रमा के प्रबल प्रभाव में आने वाले जातक आम तौर पर भावुक होने के कारण आसानी से ही आहत भी हो जाते हैं। स्वभाव से ऐसे लोग चंचल तथा संवेदनशील होते हैं तथा अपने प्रियजनों का बहुत ध्यान रखते हैं और उनसे भी ऐसी ही अपेक्षा रखते हैं तथा इस अपेक्षा के पूर्ण न होने की हालत में शीघ्र ही आहत हो जाते हैं। किन्तु अपने प्रियजनों के द्वारा आहत होने के बाद भी ऐसे लोग शीघ्र ही सबकुछ भुला कर फिर से अपने सामान्य व्यवहार में लग जाते हैं। चन्द्रमा के प्रबल प्रभाव वाले जातक कलात्मक क्षेत्रों में विशेष रूचि रखते हैं तथा इन क्षेत्रों में सफलता भी प्राप्त करते हैं। किसी कुंडली में चन्द्रमा का विशेष शुभ प्रभाव जातक को ज्योतिषि, आध्यात्मिक रूप से विकसित व्यक्ति तथा परा शक्तियों का ज्ञाता भी बना सकता है।

चन्द्रमा मनुष्य के शरीर में कफ प्रवृति तथा जल तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा शरीर के अंदर द्रव्यों की मात्रा, बल तथा बहाव को नियंत्रित करते हैं। चन्द्रमा के प्रबल प्रभाव वाले जातक सामान्य से अधिक वजनी हो सकते हैं जिसका कारण मुख्य तौर पर चन्द्रमा का जल तत्व पर नियंत्रण होना ही होता है जिसके कारण ऐसे जातकों में सामान्य से अधिक निद्रा लेने की प्रवृति बन जाती है तथा कुछेक जातकों को काम कम करने की आदत होने से या अवसर ही कम मिलने के कारण भी उनके शरीर में चर्बी की मात्रा बढ़ जाती है। ऐसे जातकों को आम तौर पर कफ तथा शरीर के द्रव्यों से संबंधित रोग या मानसिक परेशानियों से सम्बन्धित रोग ही लगते हैं।

कुंडली में चन्द्रमा के बलहीन होने पर अथवा किसी बुरे ग्रह के प्रभाव में आकर दूषित होने पर जातक की मानसिक शांति पर विपरीत प्रभाव पड़ता है तथा उसे मिलने वाली सुख-सुविधाओं में भी कमी आ जाती है। चन्द्रमा वृश्चिक राशि में स्थित होकर बलहीन हो जाते हैं तथा इसके अतिरिक्त कुंडली में अपनी स्थिति विशेष और अशुभ ग्रहों के प्रभाव के कारण भी चन्द्रमा बलहीन हो जाते हैं। किसी कुंडली में अशुभ राहु तथा केतु का प्रबल प्रभाव चन्द्रमा को बुरी तरह से दूषित कर सकता है तथा कुंडली धारक को मानसिक रोगों से पीडि़त भी कर सकता है। चन्द्रमा पर अशुभ ग्रहों का प्रभाव जातक को अनिद्रा तथा बेचैनी जैसी समस्याओं से भी पीडि़त कर सकता है जिसके कारण जातक को नींद आने में बहुत कठिनाई होती है। इसके अतिरिक्त चन्द्रमा की बलहीनता अथवा चन्द्रमा पर अशुभ ग्रहों के प्रभाव के कारण विभिन्न प्रकार के जातकों को उनकी जन्म कुंडली में चन्द्रमा के अधिकार में आने वाले क्षेत्रों से संबंधित समस्याएं आ सकती हैं।

विभिन्न राशियों में स्थित चन्द्रमा ग्रह का फल :- चन्द्रमा के द्वादश राशियों में फल शास्त्रों में निम्नानुसार बताए गए हैं


मेष राशि :- यदि जन्म कुंडली में चन्द्रमा मेष राशि में स्थित हो, तो जातक सक्रिय, चिड़चिड़ापन, अस्थिर मति, यात्रा में रुचि लेने वाला, महत्त्वाकांक्षी,साहसी,आत्माभिमानी,क्रोधी स्वभाव वाला होता हैं।


वृषभ राशि :- यदि जन्म कुंडली में चन्द्रमा वृषभ राशि में स्थित हो, तो जातक कुशाग्र बुद्धि वाला,सुखी, सुगठित  शरीर वाला,परलिंगी के प्रति आकर्षण वाला, मध्यावस्था और वृद्धावस्था में सुखी, धनी, संतोषी, चंचल मन वाला,खाने-पीने का शौकीन,लोकप्रिय एवं कामुक होता हैं।


मिथुन राशि :- यदि जन्म कुंडली में चन्द्रमा मिथुन राशि में स्थित हो,तो जातक कुशाग्र बुद्धि वाला, विद्वान, अध्ययनशील, सुंदर, वास्तविक अवस्था से कम आयु का दिखाई देने वाला, अच्छा बोलने वाला, मजाक करने वाला, संगीत में रुचि रखने वाला, बड़ी उम्र वाला एवं अंतर्ज्ञान वाला होता हैं।


कर्क राशि :- यदि जन्म कुंडली में चन्द्रमा कर्क राशि में स्थित हो ,तो जातक स्त्रियों के प्रभाव में आ जाने वाला, अच्छे स्वभाव वाला, चंचल मन वाला, सुंदर, दयालु, क्रोधी स्वभाव वाला, विदेश यात्रा की रुचि रखने वाला, जमीन जायदाद वाला और कुछ झूमती हुई चाल से चलने वाला होता हैं।


सिंह राशि :- यदि जन्म कुंडली में चन्द्रमा सिंह राशि में स्थित हो, तो जातक साहसी,शान दिखाने वाला,परलिंगी द्वारा अपमानित, पेट के रोग वाला, दु:खी, मानसिक रूप से बेचैन ,अभिमानी,महत्त्वाकांक्षी और पुराने विचारों वाला होता हैं।


कन्या राशि :- जन्म कुंडली में चन्द्रमा कन्या राशि में स्थित हो, तो जातक सुंदर रंग वाला, रूपवान, अच्छे आचरण वाला, ईमानदार, सत्य वचन बोलने वाला, कुशाग्र बुद्धि वाला ,अच्छा बोलने वाला, पुत्री संतान या कन्या संतान की अधिकता वाला, ज्योतिषी, संगीत-नृत्य और कला की ओर आकर्षित करने वाला होता हैं।


तुला राशि :- यह दिन जन्म कुंडली में चन्द्रमा तुला राशि में स्थित हो, तो जातक विकलांग, रोगी, संबंधियों से अपमानित ,कुशाग्र बुद्धि वाला, संतुलित मन वाला, चतुर, दक्ष, अच्छे स्वभाव वाला,उच्चाकांक्षाओं से रहित और संतोषी स्वभाव वाला होता हैं।


वृश्चिक राशि :- यदि जन्म कुंडली में चन्द्रमा वृश्चिक राशि में स्थित हो, तो जातक अपने माता-पिता, भाइयों आदि से अलग रहने वाला, झगड़ा करने वाला, स्पष्ट बोलने वाला बुरे विचार रखने वाला, दु:खी, हठी,क्रूर, अनैतिक विचारों वाला और धनवान होता हैं।


धनु राशि :- यह जन्म कुंडली में चन्द्रमा धनु राशि में स्थित हो, तो जातक  उच्च बौद्धिक स्तर वाला, सुखी विवाहित जीवन जीने वाला, पैतृक संपत्ति विरासत में पाने वाला,  साहित्य के प्रति रुचि का दिखावा करने वाला और लेखक होता हैं।


मकर राशि :- यदि जन्म कुंडली में चन्द्रमा मकर राशि में स्थित हो, तो जातक सदाचारी, पत्नी और संतान से प्रेम करने वाला, बात को शीघ्र जाने वाला एवं समझने वाला,स्वार्थी, आलसी, कंजूस और नीच प्रवृत्ति वाला होता हैं।


कुम्भ राशि :- यदि जन्म कुंडली में चन्द्रमा कुंभ राशि में स्थित हो, तो जातक गोरे रंग का, सुगठित शरीर वाला, लंबा कद वाला, नीति-दक्ष, दूर की सोचने वाला एवं देखने वाला, गुप्त विद्याओं में रुचि रखने वाला, अच्छा अंतर्ज्ञान वाला, धार्मिक प्रवृत्ति वाला और मध्यावस्था में सन्यास के प्रति झुकाव वाला होता हैं।


मीन राशि :- यदि जन्म कुंडली में चन्द्रमा मीन राशि में स्थित हो, तो जातक  तरल पदार्थ समुद्र से प्राप्त वस्तुओं, रत्न, शृंगार की वस्तुओं,तेल इत्यादि का व्यापार करने वाला, परलिंगी व्यक्ति के प्रभाव में आने वाला, विद्वान, स्थिर स्वभाव वाला, सादगी पसंद करने वाला, लोकप्रिय,मध्यावस्था के बाद सन्यास और साधना के प्रति रुचि दिखाने वाला और गुप्त विद्याओं के प्रति झुकाव वाला होता हैं।


२. चंद्रमा की शुभता के उपाय :-

जन्म कुंडली में चन्द्र को मन और माता का कारक माना गया है यह कर्क राशी का स्वामी है ,चन्द्रमा के मित्र ग्रह सूर्य और बुध है. चन्द्रमा किसी ग्रह से शत्रु संबन्ध नहीं रखता है. चन्द्रमा मंगल, गुरु, शुक्र व शनि से सम संबन्ध रखते है. चन्द्र वृ्षभ राशि में शुभ और वृ्श्चिक राशि में होने पर नीच का हो जाता है. ,चन्द्र ग्रह उत्तर-पश्चिम दिशाओं का प्रतिनिधित्व करता है. चन्द्र का भाग्य रत्न मोती है. चन्द्र ग्रह का रंग श्वेत, चांदी माना गया है. चन्द्र का शुभ अंक 2, 11, 20 है.

३. जन्म कुंडली में चन्द्रमा :-

जन्म कुंडली में चन्द्रमा यदि अपनी ही राशि में या मित्र, उच्च राशि षड्बली ,शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तो चन्द्रमा की शुभता में वृद्धि होती है. जन्म कुण्डली में चंद्रमा यदि मजबूत एवं बली अवस्था में हो तो व्यक्ति समस्त कार्यों में सफलता पाने वाला तथा मन से प्रसन्न रहने वाला होता है. पद प्राप्ति व पदोन्नति, जलोत्पन्न, तरल व श्वेत पदार्थों के कारोबार से लाभ मिलता है.

४. चन्द्र का प्रभाव :-

यह शरीर में बाईं आंख, गाल, मांस, रक्त बलगम, वायु, स्त्री में दाईं आंख, पेट, भोजन नली, गर्भाशय, अण्डाशय, मूत्राशय. चन्द्र कुण्डली में कमजोर या पिडित हो, तो व्यक्ति को ह्रदय रोग, फेफडे, दमा, अतिसार, दस्त गुर्दा, बहुमूत्र, पीलिया, गर्भाशय के रोग, माहवारी में अनियमितता, चर्म रोग, रक्त की कमी, नाडी मण्डल, निद्रा, खुजली, रक्त दूषित होना, फफोले, ज्वर, तपेदिक, अपच, बलगम, जुकाम, सूजन, जल से भय, गले की समस्याएं, उदर-पीडा, फेफडों में सूजन, क्षयरोग. चन्द्र प्रभावित व्यक्ति बार-बार विचार बदलने वाला होता है.

५. चन्द्रमाँ का दान वस्तु :-

 चावल, दूध, चांदी, मोती, दही, मिश्री, श्वेत वस्त्र, श्वेत फूल या चन्दन. इन वस्तुओं का दान सोमवार के दिन सायंकाल में करना चाहिए. जिनकी कुंडली में चन्द्र अशुभ हो ऐसे लोग चंद्र की शुभता लेने के लिए माता, नानी, दादी, सास एवं इनके पद के समान वाली स्त्रियों का आशीर्वाद ले