शनि ग्रह के बारे में जानकारी

१. पुराणों में शनि :-

इतिहास-पुराणों में शनि की महिमा बिखरी पड़ी है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है कि गणेशजी का जन्म होने पर सभी ग्रह उनका दर्शन करने के लिए कैलाश पर्वत पर पहुँचे। जैसे ही शनि ने आख़िर में भगवान गणेश के चेहरे पर नज़र डाली, उनका मस्तक कट कर धरती पर गिर गया। बाद में हाथी का सिर उनके धड़ पर लगाकर बालक गणेश को जीवित किया गया। शास्त्रों की यही बातें ज्योतिष में भी प्रतिबिम्बित होती हैं। ज्योतिष में शनि को ठण्डा ग्रह माना गया है, जो बीमारी, शोक और आलस्य का कारक है। लेकिन यदि शनि शुभ हो तो वह कर्म की दशा को लाभ की ओर मोड़ने वाला और ध्यान व मोक्ष प्रदान करने वाला है। साथ ही वह कैरियर को ऊँचाईयों पर ले जाता है। लोगों में शनि को लेकर कई तरह की भ्रांतियाँ हैं। बहुत-से लोगों का मानना है कि शनि देव का काम सिर्फ़ परेशानियाँ देना और लोगों के कामों में विघ्न पैदा करना ही है। लेकिन शास्त्रों के अनुसार शनि देव परीक्षा लेने के लिए एक तरफ़ जहाँ बाधाएँ खड़ी करते हैं, वहीं दूसरी ओर प्रसन्न होने पर वे सबसे बड़े हितैशी भी साबित होते हैं।

वास्तुशास्त्री सूर्य पुत्र शनि देव का नाम सुनकर लोग सहम से जाते है लेकिन ऐसा कुछ नहीं है ,बेसक शनि देव की गिनती अशुभ ग्रहों में होती है लेकिन शनि देव इन्शान के कर्मो के अनुसार ही फल देते है , शनि बुरे कर्मो का दंड भी देते है। शनि उच्च राशी तुला में प्रवेश कर रहे है , जिनकी कुंडली में शनि तुला राशी गत है जिस भाव में बैठा है उस भाव सम्बन्धी कार्यों में वृद्धि करेगा जब शनि तुला राशी में सूर्य के साथ युति होने के कारण राजनितिक लोंगे के लिए अशुभ फल देगा , वाद-विवाद में बढ़ोत्तरी होगी , धातु की बढ़ोत्तरी होगी , भारतीय राजनीती में बहुत ज्यादा उतर चढाव देखने को मिलेगा , जिनका शनि अच्चा होगा भिखारी से राजा बन जायेगा और जिनका अशुभ होगा राजा से भिखारी बनते देर नहीं लगेगी , जिनकी कुंडली में शनि तुला राशी गत है जिस भाव में बैठा है उस भाव सम्बन्धी कार्यों में वृद्धि करेगा , यदि शनि लग्न , केंद्र या त्रिकोण में है या अपनी उच्च राशी में स्वग्रही या मित्र राशी में है तो अपनी दशा अन्तर्दशा में शुभ फल प्रदान करेगा , मानसगरी ग्रन्थ के अनुसार शनि देव के शुक्र बुध मित्र. बृहस्पति सम. शेष शत्रु हैं !

नीलांजनं समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्। छायामार्तण्ड संभूतं तं नमामि शनैश्चरम्॥
ऊँ शत्रोदेवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये।शंयोभिरत्रवन्तु नः। ऊँ शं शनैश्चराय नमः।
ऊँ नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्।, छायामार्तण्डसम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्।

२. शनि की उत्पत्ति का पौराणिक वृत्तांत :-

महर्षि कश्यप का विवाह प्रजापति दक्ष की कन्या अदिति से हुआ जिसके गर्भ से विवस्वान (सूर्य ) का जन्म हुआ | सूर्य का विवाह त्वष्टा की पुत्री संज्ञा से हुआ | सूर्य व संज्ञा के संयोग से वैवस्वत मनु व यम दो पुत्र तथा यमुना नाम की कन्या का जन्म हुआ | संज्ञा अपने पति के अमित तेज से संतप्त रहती थी |सूर्य के तेज को अधिक समय तक सहन न कर पाने पर उसने अपनी छाया को अपने ही समान बना कर सूर्य के पास छोड़ दिया और स्वयम पिता के घर आ गयी | पिता त्वष्टा को यह व्यवहार उचित नहीं लगा और उन्हों ने संज्ञा को पुनः सूर्य के पास जाने का आदेश दिया | संज्ञा ने पिता के आदेश की अवहेलना की और घोड़ी का रूप बना कर कुरु प्रदेश के वनों में जा कर रहने लगी |

इधर सूर्य संज्ञा की छाया को ही संज्ञा समझते रहे | कालान्तर में संज्ञा के गर्भ से भी सावर्णि मनु और शनि दो पुत्रों का जन्म हुआ | छाया शनि से बहुत स्नेह करती थी और संज्ञा पुत्र वैवस्वत मनु व यम से कम | एक बार बालक यम ने खेल खेल में छाया को अपना चरण दिखाया तो उसे क्रोध आ गया और उसने यम को चरण हीन होने का शाप दे दिया | बालक यम ने डर कर पिता को इस विषय में बताया तो उन्हों ने शाप का परिहार बता दिया और छाया संज्ञा से बालकों के बीच भेद भाव पूर्ण व्यवहार करने का कारण पूछा | सूर्य के भय से छाया संज्ञा ने सम्पूर्ण सत्य प्रगट कर दिया |

संज्ञा के इस व्यवहार से क्रोधित हो कर सूर्य अपनी ससुराल में गए | ससुर त्वष्टा ने समझा बुझा कर अपने दामाद को शांत किया और कहा –“ आदित्य ! आपका तेज सहन न कर सकने के कारण ही संज्ञा ने यह अपराध किया है और घोड़ी के रूप में वन में भ्रमण कर रही है | आप उसके इस अपराध को क्षमा करें और मुझे अनुमति दें की मैं आपके तेज को काट छांट कर सहनीय व मनोहर बना दूँ |अनुमति मिलने पर त्वष्टा ने सूर्य के तेज को काट छांट दिया और विश्वकर्मा ने उस छीलन से भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र का निर्माण किया |मनोहर रूप हो जाने पर सूर्य संज्ञा को ले कर अपने स्थान पर आ गए | बाद में संज्ञा ने नासत्य और दस्र नामक अश्वनी कुमारों को जन्म दिया | यम की घोर तपस्या से प्रसन्न हो कर महादेव ने उन्हें पितरों का आधिपत्य दिया और धर्म अधर्म के निर्णय करने का अधिकारी बनाया |यमुना व ताप्ती नदी के रूप में प्रवाहित हुई | शनि को नव ग्रह मंडल में स्थान दिया गया |

विभिन्न राशियों में स्थित शनि ग्रह का फल :- शनि के द्वादश राशियों में फल शास्त्रों में निम्नानुसार बताए गए हैं

1.मेष राशि :- यदि जन्म कुंडली में शनि मेष राशि में स्थित हो,तो जातक मूर्ख,आवारा,क्रूर,जालफरेब करने वाला,झगड़ालू,उल्टे दिमाग वाला और दु:खी होता है। 

2.वृषभ राशि :- यदि जन्म कुंडली में शनि वृषभ राशि में स्थित हो,तो जातक धोखेबाज, सफल,एकांतप्रिय,संयमी और छोटी-छोटी बातों के कारण चिंतित होने वाला होता है। 

3.मिथुन राशि :- यदि जन्म कुंडली में शनि मिथुन राशि में स्थित हो,तो जातक दु:खी, गंदा, कमजोर, कम संतान वाला और संकीर्ण मन वाला होता है।

4.कर्क राशि :- यदि जन्म कुंडली में शनि कर्क राशि में स्थित हो,तो जातक गरीब, हठी, कम संतान वाला, स्वार्थी और मामा से बिछोह वाला होता है। 

5.सिंह राशि :- यदि जन्म कुंडली में शनि सिंह राशि में स्थित हो,तो जातक हठी, कम संतान वाला, अभागा, अच्छा लेखक और ईष्यालु होता है।

6.कन्या राशि :- जन्म कुंडली में शनि कन्या राशि में स्थित हो,तो जातक गरीब,ईष्यालु स्वभाव वाला,झगड़ालू,असभ्य, कमजोर स्वास्थ्य वाला और पुराने विचारों वाला होता है। 

7.तुला राशि :- यदि जन्म कुंडली में शनि तुला राशि में स्थित हो,तो जातक प्रसिद्ध नेता, राजनीति में रुचि रखने वाला, धनवान, सम्मानित, शक्तिशाली, दानशील और परिस्थितियों में रुचि रखने वाला होता है। 

8.वृश्चिक राशि :- यदि जन्म कुंडली में शनि वृश्चिक राशि में स्थित हो,तो जातक उतावला, कठोर हृदय, संकीर्ण विचारों वाला, हिंसक प्रवृत्ति वाला, दु:खी, विष से खतरा, कमजोर स्वास्थ्य वाला, गरीब और बुरी आदतों वाला होता है।

9.धनु राशि :- यदि जन्म कुंडली में शनि धनु राशि में स्थित हो,तो जातक सक्रिय, चतुर, प्रसिद्ध, शांतिप्रिय, दु:खी विवाहित जीवन में जीने वाला और धनवान होता है। 

10.मकर राशि :- यदि जन्म कुंडली में शनि मकर राशि में स्थित हो,तो जातक कुशाग्र बुद्धि वाला, परिश्रमी, अच्छा घरेलू जीवन जीने वाला, विद्वान, सन्देह करने वाला, बदला लेने वाला और दार्शनिक होता है।

11.कुम्भ राशि :- यदि जन्म कुंडली में शनि कुंभ राशि में स्थित हो,तो जातक नीति में दक्ष, योग्य, सुखी, कुशाग्र बुद्धि वाला और शक्तिशाली शत्रु वाला होता है।

12.मीन राशि :- यदि जन्म कुंडली में शनि मीन राशि में स्थित हो,तो जातक धनवान, प्रसिद्ध, नम्र, सुखी और दूसरों की सहायता करने वाला होता है।

३. शनिदेव को ग्रहत्व कि प्राप्ति :-

स्कन्द पुराण में काशी खण्ड में वृतांत है कि छाया सुत शनिदेव ने अपने पिता भगवान सूर्य से प्रार्थना की कि मै ऐसा पद प्राप्त करना चाहता हूँ जिसे आज तक किसी ने प्राप्त न किया हो, आपके मंडल से मेरा मंडल सात गुना बडा हो और मेरे वेग का कोई सामना नही कर पाये चाहे वह देव,असुर,दानव, ही क्यों न हो | शनिदेव की यह बात सुन कर भगवान सूर्य प्रसन्न हुए और उत्तर दिया कि इसके लिये उसे काशी जा कर भगवान शंकर कि आराधना करनी चाहिए | शनि देव ने पिता की आज्ञानुसार वैसा ही किया और शिव ने प्रसन्न हो कर शनि को ग्रहत्व प्रदान कर नव ग्रह मंडल में स्थान दिया |

४. शनि की क्रूर दृष्टि का रहस्य :-

ब्रह्म पुराण के अनुसार शनि देव बाल्य अवस्था से ही भगवान विष्णु के परम भक्त थे |हर समय उन के ही ध्यान में मग्न रहते थे | विवाह योग्य आयु होने पर इनका विवाह चित्ररथ की कन्या से संपन्न हुआ |इनकी पत्नी भी साध्वी एवम तेजस्विनी थी | एक बार वह पुत्र प्राप्ति की कामना से शनिदेव के निकट आई | उस समय शनि ध्यान मग्न थे अतः उन्हों ने अपनी पत्नी की ओर दृष्टिपात तक नहीं किया |लंबी प्रतीक्षा के बाद भी जब शनि का ध्यान भंग नहीं हुआ तो वह ऋतुकाल निष्फल हो जाने के कारण से क्रोधित हो गयी और शनि को शाप दे दिया कि – अब से तुम जिस पर भी दृष्टिपात करोगे वह नष्ट हो जाएगा |तभी से शनि कि दृष्टि को क्रूर व अशुभ समझा जाता है | शनि भी सदैव अपनी दृष्टि नीचे ही रखते हैं ताकि उनके द्वारा किसी का अनिष्ट न हो |फलित ज्योतिष में भी शनि कि दृष्टि को अमंगलकारी कहा गया है |

ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी शनि कि क्रूर दृष्टि का वर्णन है | गौरी नंदन गणेश के जन्मोत्सव पर शनि बालक के दर्शन कि अभिलाषा से गए |मस्तक झुका कर बंद नेत्रों से माता पार्वती के चरणों में प्रणाम किया , शिशु गणेश माता कि गोद में ही थे | माँ पार्वती ने शनि को आशीष देते हुए प्रश्न किया ,” हे शनि देव ! आप गणेश को देख नहीं रहे हो इसका क्या कारण है |” शनि ने उत्तर दिया –“ माता ! मेरी सहधर्मिणी का शाप है कि मैं जिसे भी देखूंगा उसका अनिष्ट होगा ,इसलिए मैं अपनी दृष्टि नीचे ही रखता हूँ | “ पार्वती ने सत्य को जान कर भी दैववश शनि को बालक को देखने का आदेश दिया | धर्म को साक्षी मान कर शनि ने वाम नेत्र के कोने से बालक गणेश पर दृष्टिपात किया | शनि दृष्टि पड़ते ही गणेश का मस्तक धड से अलग हो कर गोलोक में चला गया | बाद में श्री हरि ने एक गज शिशु का मस्तक गणेश के धड से जोड़ा और उस में प्राणों का संचार किया |तभी से गणेश गजानन नाम से प्रसिद्ध हुए |

५. शनि का शाकटभेद योग :-

पद्म पुराण के अनुसार पूर्वकाल में जब शनि गोचर वश कृतिका नक्षत्र के अंतिम अंशों में पहुंचे तो विद्वान दैवज्ञों ने रघुकुल भूषण राजा दशरथ को सावधान किया कि शनि रोहिणी का भेदन करके आगे बढ़ने वाले हैं जिस से शाकट भेद योग बनेगा | इस योग के कारण 12 वर्ष तक संसार में भयंकर अकाल रहेगा | राजा दशरथ ने यह सुन कर अपने संहारास्त्र का संधान किया और नक्षत्र मंडल में शनि के समक्ष पहुँच गए |शनि राजा दशरथ के साहस व पौरुष से प्रसन्न हुए तथा उन्हें वर मांगने को कहा | दशरथ ने कहा कि आप लोक हित में रोहिणी में गोचर भ्रमण के समय कभी भी दीर्घ अवधि का दुर्भिक्ष न करें |शनि ने दशरथ कि प्रार्थना स्वीकार कि और कभी भी लंबी अवधि का दुर्भिक्ष न करने का वचन दिया |

६. ज्योतिष शास्त्र में शनि का स्वरूप एवम प्रकृति :-

प्रमुख ज्योतिष ग्रंथों के अनुसार शनि दुष्ट ,क्रोधी , आलसी ,लंगड़ा ,काले वर्ण का ,विकराल ,दीर्घ व कृशकाय शरीर का है |द्रष्टि नीचे ही रहती है , नेत्र पीले व गढ्ढे दार हैं |शरीर के अंग व रोम कठोर तथा नख व दांत मोटे हैं |शनि वात प्रकृति का तमोगुणी ग्रह है |

७. शनि का रथ एवम गति :-

शनि का रथ लोहे का है |वाहन गिद्ध है |सामान्यतः यह एक राशि में 30 मास तक भ्रमणशील रहता है तथा सम्पूर्ण राशि चक्र को लगभग 30 वर्ष में पूर्ण करता है | इस मंद गति के कारण ही इसका नाम शनैश्चर व मंद प्रसिद्ध है | पद्म पुराण के अनुसार शनि जातक कि जन्म राशि से पहले ,दूसरे ,बारहवें ,चौथे व आठवें स्थान पर आने पर कष्ट देता है |

८. शनि गृह वैज्ञानिक परिचय :-

यह सूरज से छटे स्थान पर है और सौरमंडल में बृहस्पति के बाद सबसे बड़ा ग्रह हैं। इसके कक्षीय परिभ्रमण का पथ 14, 29, 40,000 किलोमीटर है। शनि के 60 उपग्रह हैं। जिसमें टाइटन सबसे बड़ा है| शनि ग्रह की खोज प्राचीन काल में ही हो गई थी। शनि ग्रह की रचना 75 percent हाइड्रोजन और 25 percent हीलियम से हुई है। जल, मिथेन, अमोनिया और पत्थर यहाँ बहुत कम मात्रा में पाए जाते हैं। नवग्रहों के कक्ष क्रम में शनि सूर्य से सर्वाधिक दूरी पर अट्ठासी करोड,इकसठ लाख मील दूर है.पृथ्वी से शनि की दूरी इकहत्तर करोड, इकत्तीस लाख, तियालीस हजार मील दूर है.शनि का व्यास पचत्तर हजार एक सौ मील है,यह छ: मील प्रति सेकेण्ड की गति से २१.५ वर्ष में अपनी कक्ष मे सूर्य की परिक्रमा पूरी करता है. शनि धरातल का तापमान २४० फ़ोरनहाइट है. शनि के चारो ओर सात वलय हैं|

९. ज्योतिष शास्त्र में शनि :-

ग्रह मंडलमें शनि को सेवक का पद प्राप्त है| यह मकर और कुम्भ राशियों का स्वामी है | यह तुला राशि में उच्च का तथा मेष राशि में नीच का माना जाता है | कुम्भ इसकी मूल त्रिकोण राशि भी है| शनि अपने स्थान से तीसरे, सातवें,दसवें स्थानको पूर्ण दृष्टि से देखता है और इसकी दृष्टि को अशुभकारक कहा गया है | जनमकुंडली में शनि षष्ट ,अष्टम भाव का कारक होता है |शनि की सूर्य -चन्द्र –मंगल से शत्रुता , शुक्र – बुध से मैत्री और गुरु से समता है | यह स्व ,मूलत्रिकोण व उच्च,मित्र राशि –नवांश में ,शनिवार में ,दक्षिणायन में , दिन के अंत में ,कृष्ण पक्ष में ,वक्री होने पर ,वर्गोत्तम नवमांश में बलवान व शुभकारक होता है |

१०. शनि के कारकत्वशनि के कारकत्व :-

प्रसिद्ध ज्योतिष ग्रंथों के अनुसार शनि लोहा ,मशीनरी ,तेल,काले पदार्थ,रोग, शत्रु,दुःख ,स्नायु ,मृत्यु ,भैंस ,वात रोग ,कृपणता ,अभाव ,लोभ ,एकांत, मजदूरी, ठेकेदारी ,अँधेरा ,निराशा ,आलस्य ,जड़ता ,अपमान ,चमड़ा, पुराने पदार्थ ,कबाडी ,आयु ,लकड़ी ,तारकोल ,पिशाच बाधा ,संधि रोग ,प्रिंटिंग प्रैस ,कोयला ,पुरातत्व विभाग इत्यादि का कारक है |

११. शनि के कारण होने वाले रोग :-

वास्तुशास्त्री एवं ज्योतिषाचार्य के अनुसार जन्म कुंडली में शनि अस्त ,नीच या शत्रु राशि का ,छटे -आठवें -बारहवें भाव में स्थित हो ,पाप ग्रहों से युत या दृष्ट, षड्बल विहीन हो तो कोढ़ ,वात रोग ,स्नायु रोग , पैर व घुटने के रोग ,पसीने में दुर्गन्ध , संधिवात, चर्म रोग , दुर्घटना , उदासीनता , गठिया ,थकान ,पोलियो इत्यादि रोग उत्पन्न करता है |

१२. फल देने का समय :-

शनि अपना शुभाशुभ फल 36 से 42 वर्ष कि आयु में ,अपने वार व शिशिर ऋतु में,अपनी दशाओं व गोचर में( साढ़ेसाती व ढैया में ) प्रदान करता है | वृद्धावस्था पर भी इस का अधिकार कहा गया है |

१३. शनि का राशि फल :-

मेष:- में–शनि हो तो जातक व्यसन व परिश्रम से तप्त,उग्र स्वभाव का ,प्रपंची ,निष्ठुर ,धनहीन ,बन्धु वर्ग का निहंता ,कुरूप ,क्रोधी ,घृणित कार्य करने वाला व निर्धन होता है |

वृष:- में शनि हो तो जातक सेवक , अनुचित भाषी ,निर्धन ,नीच मित्रों से युक्त ,मूढ़ ,व अधिक कार्यों में तत्पर होता है |

मिथुन:- में शनि हो तो जातक परिश्रमी ,अधिक ऋण व बंधन से पीड़ित ,कपटी ,आलसी ,कामी ,पाखंडी ,धूर्त व दुष्ट स्वभाव का होता है |

कर्क:- में शनि हो तो जातक बाल्यकाल में अस्वस्थ ,पंडित , मातृहीन ,सरल, विशेष कार्य करने वाला ,विपरीत स्वभाव वाला ,प्रसिद्ध, मध्य अवस्था में राज तुल्य सुख प्राप्त करने वाला ,पर बाधक ,बन्धु विरोधी ,पर भोग से वृद्धि पाने वाला होता है |

सिंह:- में शनि हो तो जातक लिखने –पढ़ने वाला ,ज्ञाता ,शालीनता से रहित ,स्त्री सुख से रहित ,भृति जीवी ,स्वजनों से हीन ,निन्दित कार्य करने वाला ,क्रोधी ,मनोरथों से भ्रांत ,मध्यम शरीर धारी होता है |

कन्या:- में शनि हो तो जातक नपुंसक आकार वाला ,शठ ,परान्भोजी ,अपना कार्य करने को तत्पर ,परोपकारी होता है |

तुला:- मे शनि हो तो सभा व समुदाय में बड़ा ,विदेश भ्रमण से धन व सम्मान प्राप्त करने वाला ,सभा समुदाय में ज्येष्ठ ,राजा ,ज्ञाता ,स्व जनों से रक्षित धन वाला व धूर्त स्त्री का भोगी होता है |

वृश्चिक:- में शनि हो तो जातक द्रोही ,अहंकारी ,क्रोधी ,विष व शस्त्र से आहत,परधन का हरण करने वाला ,निन्दित कार्य करने वाला ,खर्च व रोगों से पीड़ित हो कर कष्ट भोगने वाला होता है

धनु:- में शनि हो तो जातक अध्ययन –व्यवहारिक शिक्षा में अनुकूल मति वाला ,गुणवान पुत्र से युक्त ,अपनी शालीनता व धर्माचरण से प्रसिद्ध ,अन्त्य अवस्था में अतुल लक्ष्मी का भोग करने वाला ,अल्पभाषी ,सरल व बहुत नाम वाला होता है |

मकर:- मे शनि हो तो जातक पर स्त्री व स्थान का भोगी ,गुणवान ,शिल्प ज्ञाता ,श्रेष्ठ वंश से पूजित ,समुदाय से सम्मानित ,स्नान आभूषण स्नेही ,क्रिया कला का ज्ञाता ,परदेश वासी होता है

कुम्भ:- में शनि हो तो जातक झूठा ,व्यसनी ,धूर्त ,दुष्ट मित्र वाला ,स्थिर,ज्ञान कथा व स्मृति धर्म से दूर ,कटु वक्ता ,अनेक कार्यों को आरम्भ करने वाला होता है |

मीन:- में शनि हो तो जातक यज्ञ व शिल्प का प्रेमी ,शांत, मित्र व बन्धुओं में प्रधान ,नीति का ज्ञाता ,धन वृद्धि वाला ,धर्म व्यवहार रत ,नम्र ,गुणवान होता है |

(शनि पर किसी अन्य ग्रह कि युति या दृष्टि के प्रभाव से उपरोक्त राशि फल में परिवर्तन भी संभव है| )

१४. शनि का सामान्य दशा फल :-

शनि की दशा में राज सम्मान ,सुख वैभव ,धर्म लाभ,ग्राम -नगर व किसी संस्था के प्रधान पद कि प्राप्ति ,जन समर्थन , शनि के कारकत्व वाले पदार्थों से लाभ ,पश्चिम दिशा से लाभ ,स्टील ,कोयला व तेल कंपनियों के शेयरों से लाभ ,समाज कल्याण के कार्य ,पुराने आवास व वाहन कि प्राप्ति ,आध्यत्मिक ज्ञान व चिंतन ,विचारों में स्थिरता व प्रोढ़ता,व्यवसाय में सफलता ,पशुओं के व्यापार में सफलता ,वृद्धा स्त्री का संसर्ग प्राप्त होता है | जिस भाव का स्वामी शनि होता है उस भाव से विचारित कार्यों व पदार्थों में सफलता व लाभ होता है |

यदि शनि अस्त ,नीच शत्रु राशि नवांश का ,षड्बल विहीन ,अशुभभावाधिपति पाप युक्त दृष्ट हो तो शनि की अशुभ दशा में उद्वेग,वाहन नाश ,अप्रीति ,स्त्री व स्वजनों से वियोग ,पराजय ,शराब व जुआ से अपकीर्ति ,वात जन्य रोग ,शुभ कार्यों में असफलता ,बंधन , आलस्य ,निराशा ,मानसिक तनाव , शरीर में शुष्कता व खुजली .थकान ,शरीर पीड़ा ,अंग भंग , नौकर व संतान से विरोध होता है |शनि के कारकत्व वाले पदार्थों से हानि होती है | जिस भाव का स्वामी शनि होता है उस भाव से विचारित कार्यों व पदार्थों में असफलता व हानि होती है |

१५. शनि शान्ति के उपाय :-

जन्मकालीन शनि निर्बल होने के कारण अशुभ फल देने वाला हो या शनि कि साढ़ेसाती व ढैया अशुभ कारक हो तो निम्नलिखित उपाय करने से बलवान हो कर शुभ फल दायक हो जाता है |

 शनि गृह की शान्ती के लिये हर शनिवार को पिपल के पेड मे सरसो के तेल का दिपक लगाये, हनुमानजी के दशन करे तथा हनुमान चालिसा का पाठ करे, पत्येक शनिवार को शनिदेव को तेल चढाये तथा दशरथकृत शनि स्रोत का पाठ करे, तथा शनि की होरा मे जलपान नही करे, साथ ही काले कपडे पहने नही| केवल शनि ही नही, सभी नवग्रहो कि शांति के लिए ‘ग्रहमक’ नमक यज्ञ घर में किया जाता है जिस से नवग्रहो कि शांति हो पीड़ा समाप्त होती है. किसी पंडित द्वारा किया जाता है.